Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 490
________________ ९. २१.२६ ] प्रायश्चित आदि तपों के भेद व उनका नाम निर्देश ४३५ शिष्य द्वारा किया जाता है और तदुभय का अधिकारी गुरु है।४ अन्न, पात्र और उपकरण आदि के मिल जाने पर उनका त्याग करना विवेक है। अथवा किसी कारण से अप्रासुक द्रव्य का या त्यागे हुए प्रासुक द्रव्य का ग्रहण हो जाय तो स्मरण करके उसका त्याग कर देना विवेक है । ५ दु.स्वप्न और कदाचित् मन में बुरे विचार आदि के आने पर उस दोष के परिहार के लिये ध्यानपूर्वक नियत समय तक कायोत्सग करना व्युत्सर्ग है। ६ दोष विशेष के हो जानेपर उसका परिहार करने के लिये अनशन आदि करना तप है। ७ जो साधु चिरकाल से दीक्षित है, स्वभाव से शूर है और गर्विष्ठ है उससे किसी प्रकार का दोष हो जाने पर उस दोष के परिहार के लिये कुछ समय की दीक्षा का छेद करना छेद है। ८ किसी बड़े भारी दोष के लगने पर उस दोष का परिहार करने के लिये कुछ काल के लिये साधु को संघ से जुदा रखना और गुरु के सिवा शेष साधुओं के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क न रखने देना परिहार है। ६ किसी बड़े भारी दोष के लगने पर उस दोष का परिहार करने के लिये पूरी दीक्षा का छेद करके फिर से दीक्षा देना उपस्थापना है। ये सब प्राय श्चित्त देश काल की योग्यता और शक्ति का विचार करके दिये जाते हैं !!२२॥ १ मोक्षोपयोगी ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास चालू रखना .... और किये हुए अभ्यास को स्मरण रखना ज्ञान विनय के चार भेद - विनय है । २ सम्यग्दर्शन का शंकादि दोषोंसे रहित होकर पालन करना दर्शन विनय है। ३ सामायिक आदि यथायोग्य चारित्र के पालन करने में चित्त का समाधान रखना चारित्र विनय है। ४ आचार्य आदि के प्रति समुचित व्यवहार करना जैसे उनके सामने विनयपूर्वक जाना, उनके आने पर उठ कर खड़ा हो जाना, आसन देना, नमस्कार करना इत्यादि उपचार विनय है ॥२३॥

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