Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 455
________________ ४०० तत्त्वार्थ सूत्र [ ८.२४. कह पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादि भाव को प्राप्त होते हैं वे भी कर्म लाते हैं। इनमें कर्म व्यवहार करने का कारण द्रव्य निक्षेप है । द्रव्य निक्षेप के नोआगम भेद का एक भेद कर्म है । यही कर्म शब्द का वाच्य यहाँ लिया गया है इसलिये इसकी द्रव्य कर्म यह भी संज्ञा है । जो गम का दूसरा भेद नोकर्म है। इससे कर्मोदय के सहकारी कारण लिये जाते हैं । धनादि साता के नोकर्म हैं । इसी प्रकार अन्य कर्म भी जानने चाहिये । जीव को प्रति समय जो अवस्था होती है उसका चित्र कर्म है । जीव की यह अवस्था यद्यपि उसी समय नष्ट हो जाती है पर संस्कार रूप से वह कर्म में अंकित रहती है । प्रति समय के कर्म जुदे जुदे हैं और जब तक ये फल नहीं दे लेते नष्ट नहीं होते । बिना भोगे कर्म का क्षय नहीं होता ऐसा नियम है । 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म ।' 1 कर्म का भोग विविध प्रकार से होता है । कभी जैसा कर्म का संचय किया है उसी रूप में उसे भोगना पड़ता है । कभी न्यून, अधिक या विपरीत रूप से उसे भोगना पड़ता है। कभी दो कर्म मिलकर एक कार्य करते हैं । साता और असाता इनके काम जुदे जुदे हैं पर कभी ये दोनों मिलकर सुख या दुख किसी एक को जन्म देते हैं । कभी एक कर्म विभक्त होकर विभागानुसार काम करता है । उदाहरणार्थ मिथ्यात्व का मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृतिरूप से विभाग हो जाने पर इनके कार्य भी जुदे जुदे हो जाते हैं । कभी नियत काल के पहले कर्म अपना कार्य करता है तो कभी नियत काल से बहुत समय बाद उसका फल देखा जाता है । जिस कर्म का जैसा नाम, स्थिति और फलदान शक्ति है उसी के अनुसार उसका फल मिलता है यह साधारण नियम है । अपवाद इसके अनेक हैं कुछ कर्म ऐसे अवश्य हैं जिनकी प्रकृति नहीं बदलती । उदाहरणार्थ 3 1 कर्म की विविध अवस्थाएँ

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