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२४४ तत्त्वार्थसूत्र
[५.३०. नहीं है और प्रत्येक क्रिया के अन्त में उतनी ही प्रकृति ( Matter ) रहती है जितने परिमाण में वह क्रिया के आरम्भ में रहती है। केवल प्रकृति का रूपान्तर ( Modification ) हो जाता है। _ वास्तव में इस सूत्र द्वारा जैनदर्शन का समग्र सार बतला दिया गया है। जगत् के जितने भी पदार्थ हैं उन सब के गुण धर्म जुदे जुदे होकर भी वे सब एक सामान्य क्रम को लिये हुए हैं इसमें जरा भी सन्देह नहीं । पदार्थों के उस सामान्य क्रम का निर्देश ही इस सूत्र द्वारा किया गया है। इससे हमें मालूम पड़ता है कि जड़ चेतन जितने भी पदार्थ हैं वे सब एक ही धारा में प्रवाहित हो रहे हैं। इस तत्त्व को ठीक तरह से समझ लेने के बाद ईश्वरवाद की मान्यता तो छिन्न-भिन्न हो ही जाती है। साथ ही निमित्तवाद और इसके अन्तर्गत कर्मवाद की मान्यता की मर्यादा भी स्पष्टरूप से प्रतिभासित होने लगती है। कर्तृत्व की योग्यता स्व में है या पर में यह वाद पुराना है। सर्वथा भेदवादियों ने ऐसी योग्यता का बीज स्व को नहीं माना है क्योंकि उनके मत में जिसे स्व कहा जाय ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है। उनके इस भेद की कोई सीमा ही नहीं रही। यहाँ तक कि उन्होंने गुण गुणी में भेद मान लिया है। इसलिये उनके यहाँ कारण तत्त्व का विचार करते समय यह जिज्ञासा सहज ही उत्पन्न होती है कि जो भी पर पदार्थ कर्तारूप से स्वीकार किये जाते हैं उनमें यदि सबके सब अज्ञ हैं तो उनका सामञ्जस्य कैसे किया जा सकेगा? उनमें कम से कम एक कारण तो बुद्धिमान् अवश्य होना चाहिये। ऐसा कारण बुद्धिमान होकर भी यदि हीन प्रयत्न, निरिच्छ और अव्यापक हुआ तो वह बिना इच्छा के सर्वत्र सब प्रकार के कार्यों को कैसे कर सकेगा ? इसलिये इसी जिज्ञासा के उत्तरस्वरूप उन्होंने कर्तारूप से ईश्वर को स्वीकार किया है। उनके मत से जगत् में जितने भी कार्य होते हैं उन सब में ईश्वर की इच्छा, ईश्वर का ज्ञान और ईश्वर का प्रयत्न कार्य करता है।