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८. २१-२३. ]
अनुभागबन्ध का वर्णन
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ऐसा नियम है कि आठों मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता अर्थात् एक मूल प्रकृति दूसरी मूलप्रकृति रूप नहीं बदलती, वह स्वमुख से ही फल देकर निर्जरा को प्राप्त होती है । किन्तु उत्तर प्रकृतियों में यह नियम नहीं है । उनमें समान जातीय प्रकृतियों का अपनी समान जातीय दूसरी प्रकृतियों में भी संक्रमण देखा जाता है, अर्थात् एक प्रकृति बदल कर दूसरी प्रकृति रूप हो जाती है । जैसे मतिज्ञानावरण बदल कर श्रुतज्ञानावरण आदि रूप हो जाता है । अर्थात् जब मतिज्ञानावरण बदलकर श्रुतज्ञानावरण आदि रूप हो जाता है तब उदयकाल में वह अपना फल उस रूप से देता है । इसी प्रकार सब उत्तर प्रकृतियों के विषय में जानना चाहिये । फिर भी कुछ ऐसी उत्तर प्रकृतियाँ हैं जिनका परस्पर संक्रमण नहीं होता । जैसे- दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीयरूप और चारित्रमोहनीय का दर्शनमोहनीय रूप संक्रमण नहीं होता । हाँ दर्शनमोहनीयके अवान्तर भेदों का परस्पर में और चारित्रमोहनीय के अवान्तर भेदों का परस्पर में संक्रमण होना अवश्य सम्भव है। इसी प्रकार चारों आयुओं का भी परस्पर में संक्रमण नहीं होता, अर्थात् एक आयु के कर्म परमाणु बदल कर दूसरी युरूप कभी नहीं होते, किन्तु प्रत्येक आयु स्वमुख से ही फल देकर निर्जरा को प्राप्त होती है ।
ऐसा भी होता है कि एक कर्म प्रकृति के परमाणु अन्य प्रकृतिरूप भी बदलें तो भी बन्धकालीन स्थिति और अनुभाग में परिणामों के अनुसार बदल होता देखा जाता है। अधिक स्थिति घट सकती है और घटी हुई स्थिति बढ़ सकती है। इसी प्रकार अनुभाग भी न्यूनाधिक हो सकता है। इसमें से घटने का नाम अपकर्षण है और बढ़ने का नाम उत्कर्षण है । किन्तु अपकर्षण का होना कभी भी सम्भव है. पर उत्कर्ष जिस प्रकृतिकी स्थिति और अनुभाग का हो उसके बन्ध के समय ही होता है ।