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नय के भेद कथन किया जाता है। किन्तु उसमें रहनेवाला 'स्यात्' पद अनेकान्त को विषय करनेवाला होता है, इसलिए प्रमाण सप्तभंगी का प्रत्येक भंग विकलादेश का विषय नहीं माना जा सकता। आशय यह है कि प्रमाण सप्तभंगी का प्रत्येक भंग अपने अर्थ में पूर्ण होता है उसके द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु का 'प्रतिपादन किया जाता है। इसलिये उसे विकलादेश का विषय मानना उचित नहीं है। किन्तु नय सप्तभंगी के प्रत्येक भंगद्वारा एक एक धर्म का ही उच्चारण किया जाता है और उस भंग में रहनेवाला 'स्यात्' पद विवक्षाभेद को ही सूचित करता है, इसलिये इसे विकलादेश का विषय माना गया है।
दूसरे शब्दों में इस विषय को यों समझाया जा सकता है कि सकलादेश का प्रत्येक भंग एक धर्म द्वारा अशेष वस्तुका निरूपण करता है और विकलादेश का प्रत्येक भंग निरंश वस्तु का गुण भेद से विभाग करके कथन करता है। इसलिये सापेक्ष कथनमात्र विकलादेश नहीं हो सकता है। __ संक्षेप में नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाले
- माने गये हैं। प्रति समय बदलते रहते हैं तो भी नय के मुख्य भेद और उनका स्वरूप
वे अपने मूल स्वभाव का कभी भी त्याग नहीं " करते। यह कौन नहीं जानता कि सोने के कड़े को मिटाकर भले ही मुकुट बना लिया जाय तो भी उसके सोनेपने का कमी भी नाश नहीं होता। यह एक उदाहरण है। तत्त्वतः वस्तुमान सामान्य-विशेष उभयात्मक है। सामान्य के तिर्यक सामान्य और ऊवता सामान्य ऐसे दो भेद हैं। अनेक पदार्थो में जो समानता देखी जाती है वह तिर्यक् सामान्य है। जैसे सब प्रकार की गायों में रहने वाला गोत्व यह तिर्यक सामान्य है और आगे पीछे क्रम से होनेवाली विविध पर्यायों में रहनेवाला अन्वय अर्ध्वता सामान्य है। जैसे