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४.२०.-२१] वैमानिक देवों में अधिकता व हीनता का निर्देश १८१ में अवस्थित है। इन सोलह कल्पों के ऊपर क्रम से ऊपर-ऊपर नौ अवेयक हैं। ये पुरुषाकार लोक के ग्रोवा स्थानीय होने से ग्रैवेयक कहलाते' हैं। इनके ऊपर नौ अनुदिश हैं। यद्यपि इनका उल्लेख सूत्र में नहीं है. किन्तु 'नवसु वेयकषु' इसमें 'नवसु' पद को असमसित रखने से यह ध्वनित होता है। इनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान हैं। इनमें से अच्युत कल्प तक के देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं और इनके ऊपर सभी देव कल्पातीत कहलाते हैं। कल्पोपपन्नों में इन्द्रादिक की कल्पना है इसलिये भी ये कल्पापन्न कहलाते हैं किन्तु कल्पातीतों में इन्द्रादिक की कल्पना नहीं है वे सब एक समान होने से अहमिन्द्र कहे जाते हैं। इनमें से कल्पो-. पन्न देवों का निमित्त विशेष से तीसरे नरक तक जाना-बाना सम्भव है परन्तु कल्पातीत अपने स्थान को छोड़कर अन्यत्र नहीं जातो है ॥ १९॥
वैमानिक देवों में जिन विषयों को उत्तरोत्तर अधिकता व हीनता है उनका निर्देश
स्थितिप्रभावसुखद्यतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिका: ॥२०॥
गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥ स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रिय विषय और अवधिविषय की अपेक्षा ऊपर के देव अधिक है।
गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के. देव हीन हैं।
यद्यपि देवायु और देवगति नाम कर्म के उदय से सभी वैमानिक देव देव हैं पर उनमें बहुत-सी बातों में हीनाधिकता पाई जाती है ।