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२७४ तत्त्वार्थसूत्र
[६.४ वस्तुतः प्रत्येक योग से दोनों प्रकार के कर्मों का आस्रव होता है। यद्यपि कर्मों में पुण्य और पाप का विभाग अनुभाग की प्रधानता से किया जाता है । जिन कर्मों का रस-अनुभाग शुभप्रद है वे पुण्य कर्म और जिन कर्मोंका अनुभाग अशुभप्रद है वे पाप कर्म । कर्मसिद्धान्त का ऐसा नियम है कि विशुद्ध परिणामों से शुभ कर्मों का अनुभाग बन्ध उत्कृष्ट होता है और अशुभ कर्मों का अनुभागबन्ध जघन्य होता है तथा संक्लेशरूप परिणामों से अशुभ कर्मों का अनुभागबन्ध उत्कृष्ट होता है और शुभ कर्मों का अनुभाग बन्ध जघन्य होता है। इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि शुभ परिणामों के रहते हुए भी दोनों प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है और अशुभ परिणामों के रहते हुए भी दोनों प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है तथापि जैसे शुभ परिणाम पुण्य कर्मों के तीव्र अनुभाग के कारण हैं और अशुभ परिणाम पाप कर्मों के तीव्र अनुभाग के कारण हैं वैसे ही शुभ और अशुभ योग के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । अर्थात् शुभ योग से पुण्य कर्मों का अधिक बन्ध होता है और अशुभ योग से पाप कर्मों का अधिक बन्ध होता है। आशय यह है कि जिन कर्मों में पुण्य
और पाप का विभाग है उनमें से पुण्य कर्मों का प्रकृति और प्रदेशबन्ध शुभ योग की बहुलता से होता है और पाप कर्मों का प्रकृति और प्रदेशबन्ध अशुभ योग की बहुलता से होता है। प्रस्तुत सूत्र में बन्ध की इसी प्रधानता को ध्यान में रख कर सूत्रकारने शुभ योग पुण्यकर्मों का आस्रव है और अशुभ योग पाप कर्मों का आस्रव है यह कहा है।।३।।
___ स्वामिभेद से श्रास्रव में भेदसकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥ ४ ॥ कषाय सहित और कषाय रहित आत्मा का योग क्रम से साम्परायिक कर्म और ईर्यापथ कर्म के आस्रवरूप होता है।