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१४२ तस्वार्थ सूत्र
[४. ७.-५. और सहस्रार कल्प के देव और देवियाँ संगीत आदि के सुनने मात्र से परमसुख को प्राप्त होते हैं। तथा आनत, प्राणत, पारण और अच्युत कल्प के देव तथा देवियाँ एक दूसरे के स्मरण मात्र से परमसुम्ब को प्राप्त होते हैं। यद्यपि देवियाँ दूसरे कल्प तक ही उत्पन्न होती हैं पर नियोगवश वे ऊपर के कल्पों में पहुंच जाती हैं। तथा सोलहवें कल्प से ऊपर जितने भी कल्पातीत देव हैं वे सब विषय सुख की वासना से रहित होते हैं। उनके चित्त में कभी भी स्त्री विषयक अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती। __शंका-स्त्री पुरुष भेद तो तीसरे आदि कल्पों में भी है फिर उनके नीचे के देवों के समान विषय सुख क्यों नहीं होता?
समाधान-यह क्षेत्रजन्य विशेषता है। कर्म का विपाक द्रव्य, क्षेत्र श्रादि के अनुसार होता है ऐसा नियम है।
शंका-देवियों की उत्पत्ति तो दूसरे कल्प तक ही पाई जाती है, इसलिये इनके तो विषय सुख भोगने की प्रवृत्ति दूसरे कल्पतक के देवों के समान पाई जानी चाहिये ?
समाधान-'नियोग के अनुसार देवियों के भाव होते हैं। इस नियम के अनुसार जो जिस कल्प की नियोगनी होती हैं उनके भाव भी उसी प्रकार के होते हैं। यही सबब है कि तीसरे आदि कल्प की देवियों के विषय सुख की तृप्ति जहाँ जिस प्रकार से विषय सुख के भोग का निर्देश किया है तदनुसार हो जाती है। __ शंका-कल्पातीत देवों के प्रवीचार का कारण पुरुष वेद का उदय रहते हुए भी इसका प्रभाव क्यों बतलाया ? __ समाधान-वेद का मुख्य कार्य प्रवीचार नहीं है। प्रवीचार के अनेक कारण हैं। वे सब वहाँ नहीं पाये जाते, इसलिये वहाँ प्रवीचार का निषेध किया है।। ७-९॥