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तत्त्वार्थसूत्र [६. १०-२७. दूसरों की निन्दा करना परनिन्दा है। सच्चे या मूठे गुणों के प्रकट करने
र की वृत्ति प्रशंसा कहलाती है। अपनी बढ़ाई करना ___ आसव
* आत्मप्रशंसा है। दूसरे में सद्गुणों के रहने पर भी
' उनका अपलाप करना, यह कहना कि इसमें कोई भी अच्छा गुण नहीं है, सद्गुणोच्छादन है। दूसरे में कोई दुगुण नहीं है तथापि उसमें दुगुणों की कल्पना करना, यह कहना कि यह दुगुणों का पिटारा है, असद्गुणोद्भावन है। इसका यह भी अर्थ है कि अपने में कोई भी अच्छे गुण नहीं है तथापि यह कहना कि मुझमें अनेक आश्चर्यकारी गुण हैं असद्गुणोद्भावन है। ये तथा अपनी जाति, कुल, बल, रूप, विद्या, ऐश्वर्ण, आज्ञा और श्रुत का गर्न करना, दूसरों की अवज्ञा व अपवाद करना दूसरों के यश का अपहरण करना, दूसरों को कृति पर अपना नाम डालना, दूसरों की खोज को अपनी बताना, दूसरों के श्रम पर जीना आदि नीचगोत्र कर्म के आस्रव हैं ॥ २५॥ पहले नीच गोत्रकर्म के जो आस्रव बतलाये हैं उनसे उलटे सब
र उच्चगोत्र कर्म के आंत्रव हैं। उदाहरणार्थ अपनी
- निन्दा करना अर्थात् अपने दोषों की छानबीन करते
- रहना, पर की प्रशंसा करना, दूसरों के अच्छे गुणों को प्रकट करना, अपने दुगुणों को स्वयं कह देना, दूसरों के दुर्गुण झकना, पूज्य व्यक्तियों के प्रति नम्रवृत्ति धारण करना, किसी बात में बड़े होने पर भी अहंकार नहीं करना आदि ॥२६॥
किसी को दानवृत्ति का विनाश करना या किसी को किसी सद्गुण आदि का लाभ हो रहा है जिससे उसकी आत्मा का विकाश होना
सम्भव है तो वैसा निमित्त न मिलने देना, या किसी
" की भोग, उपभोगवृत्ति में बाधा डालना, शक्ति के अास्व
1 . अपहरण का प्रयत्न करना आदि विघ्नकरण है। ऐसा करने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है।
उन्छ
आसव
अन्तराय