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तत्त्वार्थ सूत्र वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ।। २५ ।। बाह्याभ्यन्तरोषध्योः ॥ २६ ॥
ध्यान से पहले के आभ्यन्तर तपों के अनुक्रम से नौ, चार, दस, पांच और दो भेद हैं ।
[ ६. २५-२६
आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन यह नव प्रकारका प्रायश्चित्त है ।
ज्ञान- विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय ये चार विनय हैं।
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्त्य के भेद से दस प्रकार का वैयावृत्त्य है । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच प्रकार के स्वाध्याय हैं ।
बाह्य और आभ्यन्तर उपाधि का त्याग यह दो तरह का व्युत्सर्ग है।
आगे चल कर ध्यान का विचार विस्तार से करनेवाले हैं इसलिये यहां उसके भेदों को न गिना कर शेष आभ्यन्तर तपों के भेद गिनाये गये हैं । अनुक्रम से उनका विस्तृत विचार करते हैं जो निम्न
प्रकार है
९ गुरु के सामने शुद्धभाव से आलोचना सम्बन्धी दस दोषों को टाल कर अपने दोष का निवेदन करना आलोचन प्रायश्चित्त के नौ भेद है | २ किये गये अपराध के प्रति 'मेरा दोष मिथ्या हो' गुरु से ऐसा निवेदन करके पुनः वैसे दोषों से बचते रहना प्रतिक्रमण है । ३ आलोचन और प्रतिक्रमण इन दोनों का एक साथ करना तदुभय है । यद्यपि प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त भी आलोचनपूर्वक ही होता है तथापि प्रतिक्रमण और तदुभयमें अन्तर है । प्रतिक्रमण
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