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तत्त्वार्थसूत्र
[१.२० यहाँ श्रुतज्ञान का प्रकरण है, इसलिये यहां भाषात्मक शास्त्रोंके भेद न गिनाकर श्रुतज्ञान के भेद गिनाने थे ? ___ समाधान-मोक्ष के लिये इन शास्त्रोंका अभ्यास विशेष उपयोगी है, इसलिये कारण में कार्यका उपचार करके भाषात्मक शास्त्रोंको ही श्रुतज्ञान के भेदों में गिना दिया है। अथवा उक्त भाषात्मक शास्त्रों का
और श्रतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम का अन्योन्य सम्बन्ध है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के कितने क्षयोपशम के होने पर उक्त शास्त्रों का कितना ज्ञान प्राप्त होता है यह एक बँधा हुआ क्रम है, अतः इसी बात के दिखलाने के लिए यहाँ शास्त्रों के भेद गिनाये हैं।
शंका-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुतमैं क्या अन्तर है ?
समाधान-श्रु त के कुल अक्षर १८४४६७४४०७३७०५५५१६१५ माने गये हैं। इनमें मध्यम पद के १६३४८३०७५८८ अक्षरों का भाग देनपर ११२८३५८०० मध्यम पद और ८०१०८१७५ अक्षर प्राप्त होते हैं। आचारांग आदि बारह अंगों की रचना उक्त मध्यम पदों द्वारा की जाती है इसलिये इनकी अंगप्रविष्ट संज्ञा है और शेष अक्षर अंगोंके बाहर पड़ जाते हैं इसलिए इनकी अंगबाह्य संज्ञा है। यद्यपि इन अंगों और अंगबाह्यों की रचना गणधर करते हैं। तथापि गणधरों के शिष्यों प्रशिष्यों द्वारा जो शास्त्र रचे जाते हैं उनका समावेश अंगबाह्य श्रत में ही होता है । अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रु तमें यही अन्तर है।
शंका-क्या एक पद में ( मध्यम पदमें ) उक्त अक्षरोंका पाया जाना सम्भव है ?
समाधान-मध्यम पद के ये अक्षर विभक्ति या अर्थ बोध की प्रधानता से नहीं बतलाये गये हैं किन्तु १२ अंगरूप द्रब्यश्रुत में से प्रत्येक के अक्षरों की गणना करनेके लिये मध्यमपदका यह प्रमाण मान लिया गया है।