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तत्त्वार्थसूत्र [८.५-१३. ___ जिसका उदय तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के श्रद्धान न होने देने में निमित्त है वह मिथ्यात्वमोहिनीय कर्म है । जिसका उदय तात्त्विक रुचि
र में बाधक न होकर भी उसमें चल, मलिन और तीन प्रकृतियाँ
अगाढ़ दोष के पैदा करने में निमित्त है वह सम्य
- क्त्व मोहनीय कर्म है। तथा जिसका उदय मिले हुए परिणामों के होने में निमित्त है जो न केवल सम्यक्त्वरूप कहे जा सकते हैं और न केवल मिथ्यात्वरूप किन्तु उभयरूप होते हैं वह मिश्रमोहनीय कर्म है। चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं एक अकषायवेदनीय और दूसरा
कपायवेदनीय । अकषाय में 'अ' का अर्थ 'थोड़ा है अकषायवेदनीय के नौ भेद
अर्थात् जो 'कषाय से न्यून है वह अकषायवेदनीय
है। इसके हास्य आदि नौ भेद हैं। जिसका उदय हास्यभाव के होने में निमित्त है वह हास्य कर्म है। जिसका उदय रतिरूप भावके होनेमें निमित्त है वह रति कर्म है। जिसका उदय अरतिरूप परिणामके होने में निमित्त है वह अरति कर्म है। जिसका उदय शोकरूप परिणामके होनेमें निमित्त है वह शोक कर्म है। जिसका उदय भयरूप परिणामके होनेमें निमित्त है वह भय कम है। जिसका उदय परिणामोंमें ग्लानि पैदा करनेमें निमित्त है वह जुगुप्सा कम है। जिसका उदय अपने दोषों को झकने आदिरूप स्त्री सुलभ भावों के होने में निमित्त है वह स्त्रीवेद कर्म है। जिसका उदय उत्तम गुणों को भोगने आदिरूप पुरुष सुलभ भावों के होने में निमित्त है वह पुरुषवेद कर्म है तथा जिसका उदय स्त्री और पुरुष सुलभ भावों से विलक्षण कलुषित परिणामों के होने में निमित्त है वह नपुंसकवेद कम है। __शंका-जो गर्भधारण करे वह स्त्री, जो अपत्य को जन्म दे वह पुरुष और जो स्त्री और पुरुष इन दोनों से व्यतिरिक्त चिन्हवाला हो वह नपुंसक । यदि स्त्रीवेद आदि का यह अर्थ किया जाय तो क्या आपत्ति है ?