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३. १.-६.] अधोलोक का विशेष वर्णन
१४७ दूसरी पर्याय में संयमासंयम को भी प्राप्त कर सकते हैं और सातवीं भूमि के नारक मरकर नियम से तिर्यंच ही होते हैं। तिर्यंचों में उत्पन्न होकर भी वे नियम से मिथ्याष्टि ही रहते हैं। उस पर्याय में सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्व आदि किसी गुण को नहीं प्राप्त हो सकते। नरकगति से आकर कोई भी जीव बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती नहीं होता।
जैसा कि पहले बतला आये हैं नीचे की सात भूमियों में पहली भूमिका नाम रत्नप्रभा है। इसके तीन भागों में से पहले भाग के पृष्ठ
पर मध्य लोक की रचना है। द्वीप, समुद्र, पर्वत, नारकों में शेष सरोवर, गाँव, नदी, वृक्ष, लता आदि सब मध्यलोक जीवों व द्वीप समुद्र में ही पाये जाते हैं। विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यच श्रादि का कहाँ व मनुष्य भी मध्यलोक में ही पाये जाते हैं। इस किस प्रकार संभव लिये इनका सद्भाव पहली पृथिवी के सिवा शेष है इसका खुलासा छह भूमियों में नहीं है। भवनवासी और व्यन्तर
देवों के आवास भी पहली पृथिवी में ही बने हुए हैं, इसलिये ये भी पहली पृथिवी के सिवा अन्यत्र नहीं पाये जाते। यह सामान्य नियम है किन्तु इसके कुछ अपवाद हैं । जो निम्न प्रकार हैं
(१) देव तीसरे नरक तक जा आ सकते हैं इसलिये ये तीसरे नरक तक पाये जाते हैं।
(२) मनुष्य केवल और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा सातों भूमियों में पाये जाते हैं। किन्तु ये उपपाद पद की अपेक्षा छह भूमियों में ही पाये जाते हैं क्योंकि सातवें नरक का जीव मरकर मनुष्य नहीं होता।
(३) संज्ञी पंचेन्द्रिय गर्भज तिथंच उपपाद पद की अपेक्षा सातों भूमियों में पाये जाते हैं, क्योंकि सातों भूमियों के नारकी भरकर संज्ञी पंचेन्द्रिय गर्भज तिथंच हो सकते हैं। उसमें भी सातवीं भूमि का नारकी तो नियम से संज्ञी पंचेन्द्रिय गर्भज तिर्यंच ही होता है।