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तत्त्वार्थसूत्र
५.४-७. भी उनका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता। पर इससे रूप रसादिक की इन्द्रिय ग्राह्यता समाप्त नहीं हो जाती है ॥५॥
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीन द्रव्य 'एक एक हैं। इसका यह अभिप्राय है कि यद्यपि क्षेत्र भेद और भाव
भेद आदि की अपेक्षा ये असंख्यात और अनन्त हैं पर द्रव्यकी अपेक्षा 'एक एक ही हैं, जीवों और पुद्गलों की तरह अनेक नहीं। __इसी प्रकार ये तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं । द्रव्य की वह प्रदेश चलनात्मक पर्याय जो एक देश से दूसरे देश में प्राप्तिका हेतु हो क्रिया कहलाती है । इस प्रकार की क्रिया से उक्त तीन द्रव्य रहित हैं इसलिये वे निष्क्रिय माने गये हैं । अर्थात् इन तीन द्रव्यों का देशान्तर में गमनाजामन नहीं होता। इस प्रकार एक द्रव्यत्व और निष्क्रियत्व ये दोनों। धर्म धर्मास्तिकाय आदि उक्त तीनों द्रव्यों का साधर्म्य है और जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय इन दोनों द्रव्यों का वैधर्म्य है। .
शंका-पर्याय और क्रिया में क्या अन्तर है ?
समाधान-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये पर्याय हैं और एक देशसे दूसरे देशको प्राप्त होने में जो हलन चलन होता है वह क्रिया है। ____ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप अवस्थाएं छहों द्रव्यों में होती हैं किन्तु क्रिया संसारी जीव और पुद्गल इन दो में ही होती है इसलिये इन दो द्रव्यों के सिवा शेष द्रव्योंको निष्क्रिय कहा है। . शंका-यदि धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य स्वयं निष्क्रिय हैं तो वे अन्य क्रियावान् जीवादि द्रव्योंके गमनादि में कारण कैसे हो सकते हैं।
समाधान-गमनादि में ये निमित्तमात्र हैं, इसलिये निष्क्रिय होने पर भी इन्हें अन्य द्रव्यों के गमनादि में कारण मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है ॥६-७॥