Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 512
________________ १०. ८. ) मोक्ष होते ही जो कार्य होता है उसका विशेष वर्णन ४५७ अर्थ है पूर्व संस्कार से प्राप्त हुआ वेग । जैसे कुम्हार के डण्डे से घुमाने के बाद डगडे और हाथ के हटा लेने पर भी पूर्व में मिले हुए वेग के कारण चक्र घूमता रहता है, वैसे ही कर्म मुक्त जीव भी पूर्व में कर्मों के उदय से प्राप्त आवेश के कारण कर्म के छूट जाने पर भी स्वभावानुसार ऊध्वगति ही करता है। २ दूसरे, संग का अभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगति करता है। जैसे तूंबड़ी पर मिट्टी आदि द्रव्य का लेप कर देने पर वह पानी में नीचे चली जाती है किन्तु लेप के दूर होते हो वह पानी के ऊपर आ जाती है। वैसे ही कम भार से आक्रान्त हुआ आत्मा उसके आवेश से संसार में परिभ्रमण करता रहता है किन्तु उस कमभार के दूर होते ही वह ऊपर ही जाता है। ३ तीसरे, बन्धन के टूटने से मुक्त जीव ऊध्र्वगति करता है । जैसे फली में रहा हुआ एरण्ड बीज फली का बन्धन टूटते ही छटक कर ऊपर जाता है वैसे ही कर्म बन्धन से मुक्त होते ही यह जीव ऊपर जाता है। ४ चौथे, ऊपर गमन करना स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगति करता है। जैसे वायु का झोका लगने से अग्नि की शिखा वायु के झोके के अनुसार तिरछी चारों ओर घूमती है किन्तु वायु के झोके के दूर होते ही वह स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है वसे ही जब तक जीव कर्मों के झमेले में फंसा रहता है तब तक वह नरक निगोद आदि अनेक गतियों में परिभ्रमण करता रहता है किन्तु कर्म के दूर होते ही वह स्वभाव से ऊपर जाता है। इस प्रकार इन हेतुओं और दृष्टान्तों से यद्यपि यह सिद्ध हो जाता है कि मुक्त होने के बाद जीव की ऊध्वंगति होती है तब भी यह प्रश्न शेष रहता है कि ऊर्च गति करके भी वह लोक के अन्त में ही क्यों ठहर जाता है ? इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार ने यह बतलाया है कि लोकान्त से आगे गति न होने का कारण धर्मास्तिकाय का अभाव' है क्योंकि जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जोव और पुद्गल की गति होती है आगे नहीं ऐसा नियम है।

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