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१.३३.] नय के भेद
७३ इसलिये इसका अन्तर्भाव भी द्रव्यार्थिक नय में ही होता है। माना कि व्यवहार नय व्यतिरेक विशेष को भी विषय करता है पर व्यतिरेक विशेष दो सापेक्ष होता है, इसलिए इतने मात्र से इसे पर्यायार्थिक नय का भेद नहीं माना जा सकता।
आगे के चार नय पर्यायार्थिक हैं क्योंकि ऋजुसूत्र नय पर्याय विशेष को विषय करता है इसलिये वह तो पर्यायार्थिक है ही। शेष तीन नय भी पर्याय को ही विषय करते हैं इसलिये वे भी पर्यायार्थिक ही हैं। प्रकृति में द्रव्य का अर्थ सामान्य और पर्याय का अर्थ विशेप है। प्रारम्भ के तीन नय द्रव्य को विषय करते हैं इसलिये वे द्रव्यार्थिक कहलाते हैं और शेष चार नय पर्याय को विषय करनेवाले होने से पर्यायार्थिक कहलाते हैं।
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे सर्वथा निरपेक्ष हैं। यद्यपि ये प्रत्येक नय अपने अपने विषय को ही ग्रहण करते हैं फिर भी उनका
प्रयोजन अपने से भिन्न दूसरे नय के विषय का परस्परसापेक्षता निराकरण करना नहीं है। किन्तु गुण प्रधान भाव से ये परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक तन्तु स्वतन्त्र रह कर पटकार्य को करने में असमर्थ है किन्तु उनके मिल जाने पर पटकार्य की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार प्रत्येक नय स्वतन्त्र रह कर अपने कार्य को पैदा करने में असमर्थ है किन्तु परस्पर सापेक्ष भाव से वे सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है।। ३३॥