________________
६. ४५. } दस स्थानों में कर्म निर्जरा का तरतमभाव ४४७
दस स्थानों में कर्म निर्जरा का तरतमभावसम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा॥४॥
सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धि वियोजक, दर्शन मोह क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ये दस स्थान अनुक्रम से असंख्येय गुण निर्जरावाले होते हैं।
सात तत्त्वों में एक निर्जरातत्त्व भी है। यद्यपि इसका पहले दो बार उल्लेख आ चुका है पर अबतक इसका व्यवस्थित वर्णन नहीं किया है अतः व्यवस्थित वर्णन करने के लिये प्रस्तुत सूत्र की रचना हुई है। कर्मों का अंशतः क्षय ही निर्जरा है। जो सब कर्मों के क्षय को मोक्ष बतलाया है सो सब कर्मों का क्षय कुछ एक साथ तो होता नहीं है, होता तो है वह निर्जरा के क्रम से ही। हाँ अन्त में जो समग्र निजरा होती है उसी का नाम मोक्ष है, इस प्रकार विचार करने पर निर्जरा मोक्ष का ही पूर्व रूप प्राप्त होता है। यद्यपि यह निर्जरा सब संसारी जीवों के पाई जाती है पर यहाँ ऐसे जीवों की निर्जरा का ही उल्लेख किया है जो उत्तरोत्तर मोक्ष में सहायक है। ऐसे जीव दस प्रकार के बतलाये हैं। वास्तव में देखा जाय तो ये दस अवस्थाएँ हैं जो एक जीव को भी प्राप्त हो सकती हैं। इनमें सम्यग्दृष्टि यह प्रथम और जिन यह अन्तिम अवस्था है अर्थात् सम्यग्दृष्टि से यह असंख्यातगुणी निर्जरा का क्रम चालू होकर जिन अवस्था के प्राप्त होने तक चालू रहता है। परिणामों की उत्तरोत्तर विशुद्धि ही इसका कारण है। जिसके जितनी अधिक परिणामों की बिशुद्धि होगी उसके उतनी ही अधिक कर्मों की निर्जरा भी होगी, इस हिसाब से विचार करने पर सम्यग्दृष्टि के सबसे कम और जिनके सबसे अधिक परिणामों की विशुद्धि रहती है । इसका यह अभिप्राय है कि सम्यग्दृष्टि
२६