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नित्यत्व का स्वरूप आते हैं जिससे वस्तु का अभाव प्राप्त होता है ।. खुलासा इस प्रकार है-नित्यत्व और अनित्यत्व इनका शीत और उष्ण के समान एक काल में एक वस्तु में रहना विरोधी है, इसलिये विरोध दोष आता है। यतः इनका एक काल में एक वस्तु में रहना विरुद्ध है अतः इनका आधार भी एक सिद्ध नहीं होता, इसलिये वैयधिकरण्य दोष आता है। एक ही वस्तु में जिन स्वरूपों की अपेक्षा भेदाभेद माना जाता है उन स्वरूपों में भी किसी अन्य अपेक्षा से भेदाभेद माना जायगा, इस प्रकार उत्तरोत्तर कल्पना करने से अनवस्था दोप आता है। वस्तु में जिस धर्म की मुख्यता से नित्यत्व धर्म माना जाता है उसी की अपेक्षा नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों मानने पर सङ्कर दोष प्राप्त होता है। यदि जिस धर्म की अपेक्षा भेद माना जाता है उसी की अपेक्षा अभेद माना जाय और जिसकी अपेक्षा अभेद माना जाता है उसी की अपेक्षा भेद माना जाय तो व्यतिकर दोष,आता है। यतः वस्तु नित्यानित्यात्मक है अतः उसका किसी एक असाधारण धर्म के द्वारा निश्चय करना अशक्य है इसलिये संशय दोष प्राप्त होता है। और इस प्रकार वस्तु के संशयापन्न हो जाने के कारण उसकी प्रतिपत्ति नहीं हो सकती
और बिना प्रतिपत्ति के वस्तु का अस्तित्व स्वीकार करना नहीं बनता। इसलिये पिछले सूत्र में जो सत् की व्याख्या उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप की है वह नहीं बनती ? इस प्रकार सत् की उक्त व्याख्या करने पर जो अनेक दोष प्राप्त होते हैं उनके परिहार के लिये जैन दर्शन के अनुसार नित्यत्व का स्वरूप बतलाना प्रस्तुत सूत्र का प्रयोजन है।
जैसा कि अन्य दर्शनों में नित्य का अर्थ कूटस्थ नित्य किया है नित्यत्व का वैसा अर्थ यदि जैन दर्शन में किया होता तो एक ही वस्तुमें नित्यत्व और अनित्यत्व के एक काल में मानने में उक्त दोष भले ही प्राप्त होते । परन्तु जैन दर्शन किसी भी वस्तु को सर्वथा नित्य नहीं मानता किन्तु कथंचित् नित्य मानता है जिसका अर्थ होता है परिणामी