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के मेद
२ तत्त्वार्थसूत्र
[२.१.-७. भेद है, इसलिये सम्यक्त्व के ग्रहण करने से ही सम्यग्मिथ्यात्वका ग्रहण हो जाता है। योग का सम्बन्ध वीर्यलब्धि से है इस लिये उसे भी अलग से नहीं कहा।
इस प्रकार क्षायोपशमिक भाव अठारह ही होते हैं यह सिद्ध हुश्रा ॥५॥
गति नामकर्म के उदय से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चार "गतियां होती हैं। कपाय मोहनीय के उदय से क्रोध, मान, माया और
लोभ ये चार कषाय होते हैं। वेद नोकपाय के उदय औदयिकभाव
से स्त्री, पुरुप और नपुन्सक यो तीन वेद होते हैं।
मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से एक मिथ्यादर्शन होता है। ज्ञानावरण के उदय से अज्ञान भाव होता है। चारित्रमोहनीय के सर्वघाति स्पर्धकों के उदय से एक असंयत भाव होता है। किसी भी कर्म के उदय से असिद्ध भाव होता है। कृष्ण आदि छहों लेश्याएं कषाय के उदय से रंजित योगप्रवृत्ति रूप हैं। इसलिये गति आदि इक्कीस भाव औदयिक हैं।
शंका-दर्शनावरण के उदय से प्रदर्शन भाव भी होता है उसको अलग से क्यों नहीं गिनाया ?
समाधान--सूत्र में आयो हुए मिथ्यादर्शन पद से अदर्शन भाव का ग्रहण हो जाता है इसलिये उसे अलग से नहीं गिनाया। तथा निद्रा
और निद्रा-निद्रा आदि का भी इसी में अन्तर्भाव कर लेना चाहिये, क्यों कि ये भी अदर्शन के भेद हैं।
शंका-हास्य आदि के उदय से हास्य आदि औदयिक भाव भी होते हैं, उनको तो अलग से गिनाना चाहिये था ?
समाधान माना कि हास्य आदि स्वतन्त्र औदयिक भाव हैं, तब भी लिङ्ग के ग्रहण करने से इनका ग्रहण हो जाता है, क्यों कि ये भाव लिंग के सहचारी हैं।