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तत्त्वार्थसूत्र [८. २५-२६. और संक्रम इन चार के अयोग्य होती है निकाचना कहलाती है। इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है। यदि अनुदय प्राप्त होता है तो परमुखेन उदय होता है नहीं तो स्वमुखेन ही उदय होता है। उपशान्त और निधत्ति अवस्था को प्राप्त कर्म का. उदय के विषय में यही नियम जानना चाहिये। ___ यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि सातिशय परिणामों से कर्म की उपशान्त, निधत्ति और निकाचनारूप अवस्थायें बदली भी जा सकती हैं। ये कर्म की विविध अवस्थायें हैं जो यथायोग्य पाई जाती है ॥ २४॥
पुण्य और पाप प्रकृतियों का विभागसद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५ ॥ 'अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६॥
सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं।
और इनसे अतिरिक्त शेष सब प्रकृतियाँ पाप रूप हैं। प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा प्रकृतियों में पुण्य और पाप का विभाग किया गया है। उसका कारण शुभ और अशुभ परिणाम हैं। यह अनुभाग बन्ध के समय ही बतलाया जा चुका है कि परिणामों के अनुसार अनुभाग में विभाग होता है। दया दाक्षिण्य आदि उत्कृष्ट गुणों के रहते हुए जिन प्रकृतियों को प्रकृष्ट अनुभाग मिलता है वे पुण्य प्रकृतियाँ हैं और हिंसा, असत्य आदि रूप परिणामों के रहते हुए जिन प्रकृतियों को प्रकृष्ट अनुभाग मिलता है वे पाप प्रकृतियाँ हैं। यद्यपि प्रशस्त परिणामों के रहते हुए भी पाप प्रकृतियों का और अप्रशस्त परिणामों
१ श्वेताम्बर परम्परा ने इसे सूत्र नहीं माना है।