Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतागसत्रे मूळम्-स्थि सिद्धी लियं ठाणे णे सन्नं णिवेसए ।
अस्थि लिंद्वी नियं ठाणं एवं सन्नं णिवेसए ॥२६॥ छाया--नास्ति सिद्धि निजं स्थान ने संशं निवेशयेत् ।
अस्ति सिद्धि निजं स्थान मेवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२६॥ अनुभव किया है और कर रहे हैं। जनएक सिद्धि और अखिद्धि नहीं है, इस प्रकार की विचारणा रमणीय नहीं है। यदि किली को रमणीय प्रतीत होती भी है, तो तय तक ही रमणीय है जब तक उन पर ठीक प्रकार से विचार नहीं किया है। दोनों का अस्तित्व है, ऐला ज्ञान ही संम्यग्ज्ञान है। इससे विपरीत अज्ञान है ।।५।। 'णस्थि सिद्धी नियं ठाणे' इत्यादि ।
शब्दार्थ-स्थि सिद्धिणियं ठाणं-नास्ति सिद्विनिज स्थानं सिद्धि -जीवझा कोई अपना निजीस्थान नहीं है, अर्थात् ईपरमारभारा नामक पृथ्वी नहीं है, 'णेवं सन्नं निवेलए-नवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि रखनी नहीं चाहिए। किन्तु 'अस्थि सिद्धी नियं ठाणं-अस्ति सिद्धि निजं स्थानं' सिद्धि, जीवका निजी स्थल है, 'एवं सन्नं निवेलए-एवं संज्ञा निवेशयेत्' इसी प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए । २६॥ અનુભવ કરેલ છે. અને કરીએ છીએ તેથી જ સિદ્ધિ અને અસિદ્ધિ નથી. આવા પ્રકારને વિચાર કર ચોગ્ય નથી જે કે ઈને તે એગ્ય લાગે પણ ખરી તે તે ત્યાં સુધી જ રમણીય અને ચેપગ્ય લાગે કે જ્યાં સુધી તેના પર સારી રીતે વિચાર કરવામાં ન આવે –બન્નેનું અસ્તિત્વ છે, એવું જ્ઞાન જ સમ્યફજ્ઞાન છે તેનાથી જુદું હોય તે અજ્ઞાન છે. મારા
'णस्थि सिद्धी नियं ठाणे' त्यादि
Avatथ-'णस्थि सिद्धी णिय ठणे-नास्ति सिद्धिनिजं स्थान' नु ५४ पोतानु स्थान नथी, अर्थात् यत्प्रामा। नामनी पृथ्वी नथी, ‘णेवं सन्नं निवेसए-नैव सज्ञां निवेशयेत्' मा प्रमाणुनी सुद्धा रामवीन नये. परंतु 'अस्थि सिद्धी नियं ठाणं-अस्ति सिद्धि निजं स्थान' पर्नुनिस्थान छ ‘एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेतू' मा प्रमाणेनी सुद्धा धार ४२वीन.. ॥२६॥