Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 26
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अच्चिसिंगारं-अर्चिःशगारम, विमानविशेषः। जीवा. बहवः सुखासिकयाऽवतिष्ठन्ते। जीवा. २००८ १३८ अच्छणघरगा-अवस्थानगृहकाणि। जम्बू०४५। अच्चिसिटुं-अर्चिःस(शिष्टम, विमानविशेषः। जीवा. अच्छणिउपूरे-संख्याविशेषः। भग० ८८८1 १३८1 अच्छणिउराति-संख्याविशेषः। स्था०८६) अच्ची-अर्चिः, अनलाप्रतिबद्धा ज्वाला। प्रज्ञा० २९, जीवा. अच्छणिउरे-संख्याविशेषः। भग० २१०| भग० २७५ २९। प्रथमं लोकान्तिकविमानम्। भग. २७१। अच्छणिकुरंगाति-संख्याविशेषः। स्था० ८६) कृष्णराज्य-वकाशान्तरे लोकान्तिकविमानः। स्था० अच्छणे- आसने, प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्निधौ ४३२ अर्चिः, शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला। औप० ५०, अवस्थाने उत्त०५३५ भग. १३२ विमानविशेषः। जीवा० १३८। अच्छण्णपडिच्छण्णो-आच्छदितप्रत्याच्छादितः। जीवा. स्वशरीरगतरत्नादितेओ-ज्वाला। जीवा. १६२ अर्चिः, १४५१ लेश्या। सूत्र. १९०| दायप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽर्चिः। अच्छते-तिष्ठिति। आव०८३२| आचा०४९। अच्छभल्ल- ऋक्षः। निशी० ५८ । वनजीवा (मरण) अच्चीकरणं- गुणवण्णणं। निशी. १९५आ। अच्छभल्लो- ऋक्षः। निशी० १२९ अ। अच्चीसहस्समालिणीयं-चन्द्रप्रभाशिबिकाविशेषणम्। अच्छर-आस्तरकम, आच्छादनम्। जीवा० २१० आचा० ४२३ अच्छरसा-अच्छरसाः, अतिनिर्मलाः। जम्बू. १९२। अच्चुओ-अच्युतः, देवलोकविशेषः। आव० ११७ अच्छरा-अप्सरा, चप्पुटिका। सूत्र० ३२५। शक्रस्याग्रअच्चुत्तवडिंसगं-अच्युतकल्पगतविमानविशेषः। सम० | महिषीनाम। भग. ५०५ ४१। अच्छराणिवातो-अप्सरोनिपातः, चप्पटिका। प्रज्ञा० अच्चुदयं- अत्युदकम्, महान् वर्षः। ओघ० ३१| ६०० अच्चुयवडिसए- अच्युतावतंसकः, अच्युतदेवलोकस्य अच्छराते-शक्रस्याग्रमहिष्या राजधानीविशेषः। स्था. मध्ये-ऽवतंसकः। जीवा० ३९३। २३११ अच्चुया-अच्युताः, कल्पोपपन्नवैमानिकभेदविशेषाः। अच्छरानिवाए- अप्सरोनिपातः, तिस्रश्चप्पटिकाः। औप० प्रज्ञा०६९। अच्युतः-आयातः। ओघ० ५० १०९| चप्पुटिका। भग० २६९। जीवा० १०९। अच्चुव्वाया-परिश्रान्ताः । बृह० २११ आ। अच्छरीयं-आश्चर्यम्। आव. ३९५१ अच्चेइ-अत्येति, अतिक्रामति। आचा. १४४। अच्छवि-अक्षपि, अशरीरः, अव्यथकः। भग० ८९२। अच्छं- ऋक्षम्। आचा० ३३८ अतिस्वच्छम्। जीवा० १६० | अच्छवी-अच्वविः, अव्यथकः। उत्त. २७७, स्था० ३३६] स्फटिकवच्छुद्धम्। प्रज्ञा० ८७ अच्छह-तिष्ठत। ओघ०१५८१ अच्छंद-अच्छन्दः, अस्ववशः। दशवै. ९१| अच्छा-अच्छाः, आकाशस्फटिकवत्। स्था० २३२। अच्छंदो- यथाछन्दः, पाषण्डस्थः। आव० १९३। अच्छा-अच्छापुरी, वरणजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५। अच्छ- ऋक्षः, प्रसिद्धः। भग० १९०, निशी० १३८ आ। सनखपदविशेषः। प्रज्ञा०४५। आकाशस्फटिकवदतिऋक्षः। भग. ३०९। ऋक्षाः, अच्छभल्लाः। जम्बू. १२४। स्वच्छा। जम्बू० २० अच्छउ-तिष्ठतु। दशवै० ३७ अच्छाडेइ-आच्छादयति। आव० ४३४। अच्छणं-अवस्थानम्। बृह. २३६ अ। सन्निधौ आसनम् अच्छारियभत्तं-लावकभक्तम्। आव. २०७। | आव० ५२४१ अच्छारिया-लावकम्। आव. २०७। मूल्यप्रदानेन अच्छण-उपविश्यावस्थानम्। बृह. ११० अ। शालिलवनाय कर्मकराः, अस्तारिकाक्षेत्रे क्षिप्यन्ते ते। अच्छणए- यत्र स्वाध्यायं कर्वद्भिरास्यते। ओघ. ९४ व्यव० १६९ आ। अच्छणघरं-अवस्थानगृहकम्, यत्र यदा तदा वाऽऽगत्य | अच्छाविज्जइ-स्थाप्यते। आव०६३३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [26] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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