Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
View full book text
________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-१)
[Type text]
समीपवतिवि-दग्धचित्तरक्षार्थ
उक्कल-उत्कलः-ऊर्ध्वं धर्मकलाया यत्तत्। प्रश्न. २७ क्षणमव्यापारतयाऽवस्थानम्। औप० ८१|
उत्कलः-प्रदेशविशेषः, नैमित्तिकविशेषः। आचा० ३५९। मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धचित्तरक्षणार्थं नैमित्तिकः। आचा० ३५९। त्रीन्द्रियजीवभेदः। उत्त. क्षणम-व्यापारतया अवस्थानम्। राज० २९|
६९११ उक्कंतो-उत्क्रान्तः, आयुःक्षयेण भृतः। उत्त० ४६० उक्कलति-उत्कलति-उच्छलति। उत्त. १२४ उत्कृतः-त्वगपनयनेन छिन्नः। उत्त०४६०
उक्कला-उत्कटा, उत्कला वा। स्था० ३४३। उक्कंबिओ-वंशादिकम्बाभिरवबद्धः। आचा० ३६१। उक्कलिया-उत्कलिका-लघुतरः समुदायः। औप० ५७। उक्क-उल्का। व्यव० २४१ अ। गगनाग्निः। दशवै० १५४१ | भग०४६३। त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२। उत्साहः। उक्कइयकरणं-सिव्वणं, त्ण्णणं। निशी. १२४अ। सूर्य २९६। लघुतरः समुदायः। भग० ११५) उक्कच्छिय-आर्यिकाणां त्रयोदशभेदोपधौ एकादशी। उक्कलियाअंडं- वक्खोइलियाअंडगं। दशवै. १२११ ओघ० २०९।
उक्कलियावाउ-उत्कलिकावातः, बादरवायकायभेदः। उक्कच्छिया-कच्छाए समीवं उवकच्छं, तं छादयंतीति। आचा०७४। निशी० १८० अ।
उक्कलियावाए-उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रितो उक्कज्जिय-डंडायतं। निशी० ५९ अ।
यो वातः उत्कलिकावातः। प्रज्ञा० ३० जीवा. २९। उक्कडं-उत्कटं-उपेतम्। जम्बू० २७५। दुष्कृतम्। आव० उक्कलियावाया-उत्कलिकावातः, उत्कलिकाभिर्यो वाति ७८२। प्रचुरः। आव० ७७४
सः। भग. १९६। ये स्थित्वा स्थित्वा पनर्वान्ति। उत्त. उक्कडुअ-उत्कटकानि, यथास्थानमनिविष्टानि। जम्बू. ६९४१ १७०
उक्कस-उत्कर्षः-औन्नत्यम्। दशवै०१८९। उक्कडुआसणिए-उत्कुटुकासनं-पीठादौ पुतालगनेनोप- । उक्कसणं-उदगंतेण प्रेरणं| निशी०६३ आ।
वेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स। स्था० २९८१ उक्कसाई-उत्कषायी-प्रबलकषायी। उत्त०४२० उकड्ढग-अपकर्षकः, यो गेहादग्रहणं निष्काशयति, उक्कसिस्सामि- लघु सदपरशकललगनत चौरान् वा आकार्य परगृहाणि मोषयति, चौरपृष्ठवहो उत्कर्षयिष्यामि। आचा० २४४। वा। प्रश्न.४७
उक्कसे-उत्कर्षेत्-उत्क्रामयेत्। आचा० २९३। उक्कडुढिअं-उत्कर्षितम्-उत्पाटितम्। पिण्ड० ११६) | उक्कस्स- उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः-उत्कर्षवन्तः, उत्कृष्टसउक्कत्थणं-उत्कत्थनं-त्वचोऽपनयनम्। प्रश्न. २४। ङ्ख्याः, परमानन्ताः। स्था० ३५) उक्कणअणाभोगकिरिया-उत्क्रमणानाभोगक्रिया, | उक्का-उल्का-चुडुली। जीवा० २९। ये मूलाग्नितो वित्रुट्य लङ्घनप्ल-वनधावनासमीक्ष्यगमनागमनादिक्रिया। वित्रट्याग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते। जीवा. १२४। महदेखा आव०६१४१
प्रकाशकारिणी, रेखारहितो विस्फ़लिङ्गः प्रभाकरोवा। उक्करं-उत्कर-क्षेत्रागवादि प्रति
आव० ७५२। दीपिका। नन्दी० ८४| चुड्डली। आव० ५६६। अविद्यमानराजदेयद्रव्यम्। विपा० ६३।
निपतन रेखायुक्तो ज्योतिष्पिण्डः। ओघ० २०५१ उक्करियाभेदे-उत्कटिकाभेदः-द्रव्यस्य पञ्चमभेदः। स्वदेहवर्णां रेखां कुर्वन्ती या पतति सा रेखाविरहिता वा प्रज्ञा. २६७।
उद्द्योतं कुर्वन्ती पतति सा। आव० ७६५) उक्करिसियखग्गो-आकृष्टखड्गः। आव० ५५४।
गगनाग्निज्वाला। जम्ब० ५२ चड्डली। प्रज्ञा० २९। उक्कलंबिज्जि-उल्लम्बयितम्। आव० २२०
पगासविरहितो य, महंतरेहा पहा। निशी० ७५आ। उक्कलंबेइ-अवलम्बयति। आव० ४२६। उद्बध्नाति। सदेहवण्णं रेहं करेंती जा पडइ सा उक्का, निशी. ५२ आ।
रेहविरहितावाउज्जोवं करेंती पडती सा वि उक्का। उक्कलंबेति-उब्बंधेति। निशी. ११८ अ।
निशी ७० अ। अग्निपिण्डाः। स्था० ४२० आकाशजा।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[169]
“आगम-सागर-कोषः" [१]

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238