Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-१)
[Type text]
अप्फुण्णा-व्याप्ताः। बह०७० आ।
अबंधिउं- पात्रकबद्धग्रन्थिमदत्त्वा। ओघ. १४४१ अप्फुण्णे- आपूर्णः-परिपूर्णशरीरः। उत्त० ४८३। अबभं- अब्रह्म, अकुशलं कर्म, मैथुनम्। प्रश्न० ६५ अप्फुण्णो- व्याप्तः। आव० ३५४।
अकुशलानुष्ठानम्, अब्रह्मणः प्रथमं नाम। आव ७६१] अप्फेया-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२
अबंभ-अब्रह्मवर्जकः, श्रावकस्य षष्ठी प्रतिमा। आव. अप्फोआ- वनस्पतिविशेषः। जम्बू०४६।
६४६। अप्फोडेइ-आस्फोटयति, करास्फोटं करोति। भग. १७५ | अबंभचारिणो- अब्रह्मचारिणः, मैथुनं आसेवितं शीलं अप्फोया- वनस्पतिविशेषः। जीवा० २०११
धर्मो वा येषां ते। उत्त० ३५८१ अप्फोव-आस्तीर्णे, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्नः। उत्त० | अबद्धिआ- अबद्धिकाः, अबद्धं सत्कर्म कंचुकवत्पार्श्वत ४३८५
स्पृष्टमात्रं जीवं समनुगच्छन्तीत्येवं वदन्ति। औप. अप्रकीर्णप्रसृतं- वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३।
१०६| अप्पडिहय-अप्रतिहत कटकुडपर्वतादिभिरस्खलिते, अबद्धिगा-अबद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः। आव. अविसंवादके वा। सम०४१
३११। अबद्धिकः, बद्धं-जीवप्रदेशैरन्योऽन्याविभागेन अप्रत्याख्यानम-दवितीयकषाय चतुष्कम। आचा. ९१| सम्पृक्तं न बद्धं-अबद्धं, अर्थात्कर्म, अप्रमार्जितचारित्वम्-द्वितीयमसमाधिस्थानम्। प्रश्न तदभ्युपगमविषयमेषामस्तीति। उत्त० १५२ १४४१
अबद्धिता-अबद्धिकाः-स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः। स्था० अप्सरा-दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां
४१० भूतावतंसि-काराजधान्यधिष्ठात्री, शक्रदेवेन्द्रस्य अबला-अबलाः, शारीरशक्तिविकलाः। जम्बू. २३९। दवितीयाग्रमहिषी। जीवा० ३६५ शक्रस्याग्रमहिषी। अबले- अबलः, शरीरशक्तिवर्जितः। भग० ३२३॥ जम्बू. १५९।
अबहस्सुए-अल्पश्रुताय-अवगाढस्तोकशास्त्राय। सर्य. अफलवंतकी-अफलवान्, अप्राप्तिकः। प्रश्न०६४। २९६। अफव्वंता-अलभमानाः। निशी० १८३आ।
अबहुस्सुतो-जेण आयारपगप्पो ण ज्झातितो। निशी. अफासुअ-अप्रास्कम्, सचित्तसन्मिश्रादि। दशवै. २३११ २५। सचित्तम्। आचा० ३२१॥
अबहोड-अवखोटकः, बन्धविशेषः। उत्त. ११३। अफासुए- अप्रासुकम्, न प्रगता असवः-असुमन्तो अबाधाए-अबाधया अपान्तरालं। सूर्य. २६२
यस्मात्त-दप्रासुकम्-सजीवमित्यर्थः। भग० २२६। अबाल-अष्टाधिकवर्षः। निशी. १७३ आ। अफुडिय-अस्फुटितः-राजीरहितः। आव० २३९। अबाहा-अबाधा, कर्मणो बन्धोदययोरन्तरम्। भग० २५५ अफुण्णे-आपूर्णम्। प्रज्ञा० ५९२
अन्तरं, अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपा। अफुसं-अस्पृश्यम्, अबन्धनीयम्। भग० १०४१
अव्यवधानेनान्तरम्। जम्बू०४३५। अफसमाणगतिपरिणामे-अस्पृशदगतिपरिणामः, दूरवर्तित्वेनानाक्रमणमपान्तरालम्। जम्बू०६४। अस्पृशतो गतिपरिणामः। प्रज्ञा० २८९।
अन्तरं-व्यवधानम्। जम्ब०६५ अपान्तरालम्। जीवा० अफुसमाणगती- अस्पृशद्गतिः, यत्परमाण्वादिकमन्येन ९४, २०४। अन्तरालत्वाव्याघातरूपा। जीवा० ३०२ पर-माण्वादिना सह परस्परसम्बन्धमननुभूय गच्छति अन्तरालम्। ओघ० ९०| आव०४६। अन्तरं जम्बू०४३५१ सा, विहायोगतेवितीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२७।
अबाहाए- अबाधया, व्यवधानेन कृत्वा। सम० २१| अबंधव-अबान्धवः, स्वजनरहितः। प्रश्न. १९|
अबाधायां कृत्वा, अपान्तरालेषु मुक्त्वा । जीवा० २२२॥ अबंधवो-अबान्धवः, बान्धवरहितः,
अबाहिरा-अबायाः, न बाह्या इति। आव० ४५) स्वजनसम्पादयकार्या-भावात् कर्मनिगडबद्धः। प्रश्न. अबितिज्जओ-अदवितीयः, सहायो न भवति। प्रश्न ११|
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मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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“आगम-सागर-कोषः” [१]

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