Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-१)
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वितीर्ण हरति अपान्तराल एवाच्छिनत्ति। उत्त० २७४। | अण्णियपुत्तो-अर्णिकापुत्रः। निशी. १९४ आ। अन्यादत्तहरः-ग्रामनगरादिषु चौर्यकृत्। उत्त० २७४। | अण्णिया-अर्णिका, दक्षिणमथुरायां वणिक्पुत्री। आव० अण्णमण्णघडत्ता-अन्योऽन्यघटता, अन्योऽन्यं
૬૮૮ घटासमुदाय-रचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता, अण्णियापुत्ते-अर्णिकापुत्रः। बृह. २३५आ। जालिका। भग० २१५
अण्णोयत्ता-ईषदवनता। व्यव० १२४ आ। अण्णवं-अर्णवः-अण्र्णो-जलं विदयते यत्रासावर्णवः। अण्हयंति-क्षरति (तन्दु०) उत्त. २४१।
अण्हय-आस्नवः, आ-अभिविधिना स्नौति-श्रवति कर्म अण्णसंभोइय-अन्यसाम्भोगिकः। आव० ८४७।
यस्मात् स आश्रवः प्राणातिपातादिः। प्रश्न. २ अण्णहम्मिणी- परतीर्थिका अगारस्था अविरतिका। बृह. | अण्हयकरं-आश्रवकरं। औप० ४२। ४७ आ।
अण्हयकरिं-कर्माश्रवकरीं। आचा० ३८८1 अण्णाइहसरीरं-अन्याविष्टशरीरम,
अण्हयकरे-कर्माश्रवकारी। आचा० ४२५ व्यन्तराधिष्ठितशरीरम्। आव० ६३३।
अण्हाणं-अस्नानम्। आव० १५४। अण्णाइट्ठो-अन्याविष्टः, परायत्तः, यक्षाविष्टो वा। अण्हायगो-अस्नायकः। आव० ८३१| उत्त. ११३। आविष्टः। अन्त०२०
अतज्जाय-अतज्जातपारिस्थापनिकी, पारिस्थापनिक्या अण्णाइत्तो-अपराद्धः। निशी० १०१ अ।
द्वितीयो भेदः। आव० ६१९। अण्णाएसि-अज्ञातैषी, अज्ञातो जातिश्रुतादिभिः एषति- अतज्जायं-अतज्जातीयं, भिन्नजातीयम्। आव०६२३। उञ्छति पिण्डादीति। उत्त० १२४।
अतडं-अतीर्थं, अन्यतीर्थं वा। बृह० ३१ अ। अतित्थं। अण्णाणं-अज्ञानम्। चतुर्थः कुडङ्गः। आव० ८५६) निशी०१७। एकविंशतितमः परिषहः,
अतति-सततमवगच्छति। स्था० १० कर्मविपाकजादज्ञानान्नोविजेत। आव०६५७) अतन्त्रम्-शास्त्रलक्षणरहितम्। आव० १२०० अण्णाणदोसे-अज्ञानदोषः। औप०४४।
अतरं-तरीतमशक्यं, विषयगणं भवं वा। उत्त० २९२ अण्णाणिय-अज्ञानिकः, कत्सितं ज्ञानमस्यास्तीति। अतरंतं- ग्लानम्। बृह. २२९ आ। अतरन्त-अतिग्लानः। आव० ८१७
ओघ. १८३। अण्णाणियवाई-सप्तषष्टिभेदा अज्ञानवादिनः। सम. अतरंत-ग्लानाः। स्था० १३८ १११|
अतरंते- अतरत्-असहः। व्यव० ३७ अ। अण्णाणो-अज्ञानः, कुदृष्टिमोहितः। आव. ३४६) अतरंतो-अतरन्, अशक्न्व न्। आव०८४७। अशक्नुवन्अण्णातचज्जा-अज्ञातचर्या। आव० ८२२॥
असमर्थः। दशवै०८९। अशक्नवान्। आव० ६३७ अण्णातपिंडे- अज्ञातपिण्डः, अन्तप्रान्तः, अज्ञातेभ्यो वा ग्लानः। ओघ० ४५। यदाऽऽकाशव्यवस्थिताभ्यां पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोऽज्ञातोञ्छवृत्त्या लब्धः। पादाभ्यां न शक्नोति स्थातुं तदा। ओध० ८४ गिलाणी। सूत्र० १६४
निशी० ४३ अ, ३० आ, ३६० अ। ग्लानः। बृह० ५आ, अण्णायं-अज्ञातोञ्छं। बृह. १८६ आ।
निशी० ८४ । अण्णाय-अज्ञातम्, अनुमानतः अज्ञातम्। भग० १९७, अतरण-अतरणः, अशक्तः, ग्लानः। ओघ०६७, बृह. २००।
२३४ आ। अण्णायया-अज्ञानता, तपसोऽप्रकाशनम्। प्रश्न. १४६। | अतरो- ग्लानः। बृह. २२४ अ। रत्नाकरः। बृह. ३७) अज्ञातता, तपस्यज्ञातता, योगसङ्ग्रहे सप्तमो योगः।। अतसी-अयसी, धान्यविशेषः। स्था०४०६गच्छविशेषः। आव०६६४१
प्रज्ञा० ३२ धान्यविशेषः। निशी० १४४ आ। अण्णावदेसो-अदंसियभावो। निशी० ७२ आ।
अतहणाणे-अतथाज्ञानम्। स्था०४८१।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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“आगम-सागर-कोषः" [१]

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