Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 142
________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] आरगय-आराद्गतम् आरसियं-आरसितम्, शब्दितं। आव. २२७१ आराद्भागस्थितमिन्द्रियगोचरमागतमि-त्यर्थः। भग. आरा-आरा, प्रवणदण्डान्तर्वतिनी लोहशलाका। प्रश्न २१७ २श तुट्टोवाणहसिव्वणट्ठा। निशी. १८ अ। आरटन्ती- रुदन्ती। नन्दी. १५४। आराडी- आराटी, आरसनम्। आव०६७७) आरणं-संशब्दनम्। ओघ०८१| आरादण्डः- प्रतोदः। दशवै. २५० आरणा-आरणाः, कल्पोपगैकादशवैमानिकभेदः। प्रज्ञा० आराम-तत्र रमणीयतातिशयेन स्त्रीपुरुषमिथूनानि यत्र ६९। आरमन्ति स विविधपुष्पजात्य्पशोभित आरामः। आरण्ण-आरण्यः, तापसादिः। अन्यो० २४४। अनुयो० २४। विविधपुष्पजात्युपशोभितः। स्था० ३१२। आरण्णगतणं- श्यामाकादितृणम्। बृह. २२० । रतिः। आचा० २२९। आरामः-आरमन्ति आरण्णिय-आरण्यकः, अरण्ये भवः, तिर्थिकविशेषः। यस्मिन्माधवीलतादिके दम्प-त्यादीनि स आरामः। सूत्र०४२२ भग. २३८ आरामाः-दम्पत्यादीनि येष्वारमन्ति ते। आरण्यकम्-लौकिकश्रुतम्। आव०४६५। अनुयो० १४९। वाटिका। प्रश्न० ८ आरम-न्ति-यस्मिन् आरतः-अत्र इतो वा। उत्त० ५४० माधवीलतागृहादौ दम्पत्यादीनि क्रीडन्तीति। औप. ३। आरत्तं-आरक्तम्, ईषद्रक्तम्। आचा० १२१| पुष्पप्रधानवम्। औप०४१। दम्पत्योर्नगरासआरनालं-कजियं (देसीभासाए)। निशी० ४७ अ। नरतिस्थानम्। जम्बू. ३८८1 आगत्य रमन्तेऽत्र आरनिबद्धा-आरकनिबद्धा, गन्त्री। पिण्ड० १०२ माधवी-लतागृहादिषु दम्पत्य इति सः। जीवा० २५८। आरन्निय-अरण्ये वसतीति आरण्यकः। सूत्र० ३१५ दम्पतिरम-णस्थानभूतमाधवीलतादिगृहयुक्तः। प्रश्न आरबके-आरबदेशोद्भवान्, म्लेच्छविशेषान्। जम्बू० १२७। दम्पति-रतिस्थानलतागृहोपेतवनविशेषः। प्रश्न. २२० ७३। माधवीलता-दयुपेतो दम्पतिरमणाश्रयो वनविशेषः। आरबदेशजा-आरब्यः। जम्बू. १९१] प्रश्न. १२६॥ आरबी-आरबदेशवासिनी स्त्री। भग०४६० आरामाइ-विविधवृक्षलतोपशोभिताः आरबो-आरबः, चिलातदेशवासी म्लेच्छः। प्रश्न. १४। कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसा आरभंती-आरभमाणा, षट्कायान् विनाशयन्ती। पिण्ड० रमणस्थानभूताः। स्था० ८६| १५७ आरामागार-आराममध्यवर्तिगृहम्। औप०६१। उद्यानआरभटभसोलः-त्रिंशत्तमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७ | गृहम्। आचा० ३६५ आचा० ३०६] आरभड-आरभटम्, नृत्यविशेषः। जम्बू०४१२। निशी. १ | आरामिओ-आरामिकः। आव० ३९० अ। जहाभिहितविधाणतो विवरीयं, अहवा तरियं आराहइत्ता-आराध्य, अण्णंमि वा दरपडिलेहति अण्णं आढवेंति। निशी. १८१ उत्सूत्रप्ररूपणादिपरिहारेणाबाधयित्वा। उत्त० ५७२। आ। वितथकरणरूपा, त्वरितं सर्वमारभमाणस्य, यथावदुत्सर्गापवादकुशलतया यावज्जीवं तदअर्द्धप्रत्युपेक्षित एवैकत्र यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं सा। स्था० सेवनेन। उत्त० ५७२। ३६१। विपरीता प्रत्युपेक्षणा, आकुलं आराहए-आराधयति, प्रगणीकरोति। दशवै० २२४। आरायदन्यान्यवस्त्रग्रहणं तद्वा। ओघ० १०९। सोत्साहः धकः-निरतिचारपालनकृत्। उत्त० ५७८ सुभटः तेषामिदम्। जम्ब०४१७। अष्टाविंशतितमो आराहओ-आराधकः, अविराधकः। ओघ.११२१ नाटय्यविधिः। जीवा० २४७ जम्बू. १४७ आराहगा-आराधकाः-आराधयन्ति-अविकलतया निष्पाआरयं- आरतं, उपरतम्। सूत्र० १०५। अभिविधिना दयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधकाः। उत्त० २३३ आसक्तं। प्रश्न. १३८१ आवर्जकाः। उत्त. ३६११ आरसि-आरस्य, रुदित्वा। आव०५०४। | आराहण-आराधनम्, अखण्डकालकरणम्। भग० २९७। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [142] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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