Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 88
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अयसि-अतसी, धान्यविशेषः। दशवै० १९३। भग० ८०२, अरक्खुरी-आरक्षुरीम्, संवेगोदाहरणे मित्रप्रभस्य ८०३। भङ्गी, धान्यविशेषः। भग० २७४। अतसपुष्पम्। प्रत्यन्त-नगरम्। आव०७१० उत्त० ४६०| कुसुंभिआ। ओघ० १४६| अरगंतरं-अरकान्तरम्। आव० ३४४। अयसिकुसुम-अतसीकुसुमम्। प्रज्ञा० ३६० अरगाउत्तासिया-आरकोत्तासिता, अरकैरायुक्ताअयसिवणं-अतसीवनम्। आव० १८६। अभिविधि-नाऽन्विता अरकाय्क्ता, 'सिय'त्ति स्यात्अयसिवणे-अतसीवनम् भग० ३६) भवेत्, अथवाऽऽ-कारकाउत्तासिता-आस्फालिता यस्यां अयसी-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। धान्यविशेषः। उत्त० सा। भग०१५४ ६५३ अरजा-अरजपूः। जम्बू. ३५७। अया-द्विखुरविशेषः। प्रज्ञा० ४५) अरणी-काष्ठविशेषः। प्रज्ञा० २९। अयागरं-अयआकरः, यस्मिन् निरन्तरं अरण्णं- अरण्यम्, काननम्। दशवै०१४७ महामषास्वयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाट्यते सः। जीवा. अरण्णवडिंसगं-विमानविशेषः। सम० ३९। १२३। लोहाकरः-यत्र लोहं ध्यायते। भग. १९९ अरण्णानी- अरण्यम्। उत्त० ३८१। अयि-अयि!, कोमलामन्त्रेण प्रयुज्यमानः शब्दः। दशवैः | अरति-अरतिः, मोहनीयोदयजश्चित्तविकार ४९। उद्वेगलक्षणः। स्था० २६। अयोगी-न सन्ति योगा यस्य स, न योगीति वा | अरते- अरजा, ब्रह्मलोके विमानप्रथमप्रस्तटनाम। स्था० योऽसावयोगी, शैलैशीकरणव्यवस्थितः। स्था० ५० ३६७ अयोग्यः- (अजोग्गो), अनलः, अपच्चलः। निशी० २५ | अरय- अरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात्। सम० १४० आ। अरयं-अरतं, रतस्याभावरूपः, अरजो-रजसोऽभावरूपः। अयोध्या-दशरथराजधानी। प्रश्न० ८७ अरसं-शृङ्गारादिरसाभावम्। उत्त० ४४८१ भरतसगरादिचक्र-वर्तिनां नगरी। प्रज्ञा० ३००। कोशला। | अरविंद-अरविन्द, प्रत्येकवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३७ जम्बू० १३६। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३ अयोमुहा- अयोमुखः, एकादशमान्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५०| | अरसं-अरसम्, हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतम्। प्रश्न० १०६। अव्यापारोपेक्षाः- मृतकस्वजनादिभिस्तं प्रश्न०६३। अविद्यमानाहार्यरसम्। हिङ् सक्रियमाणमपेक्ष-माणास्तत्रोदासीनाः। स्था० ३५३। ग्वादिभिरसंस्कृतमिति। प्रश्न. १६३। असंपत्तरसम्। अव्याहतपौर्वापर्यम्-वाण्यतिशयविशेषः। सम०६३। दशवै. ८३। असम्प्राप्त-रसम्, हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतम्। अरंजर-अरजरम्, उदकुम्यो, अलजरम्। स्था० २८३, दशवै. १८० ૨૨૮૫. अरसजीवी- अरसेन जीवितुं शीलमाजन्मापि यस्य स। अरइ-अरतिः, मोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगः। भग० ८०| स्था० २९६। अरइकम्म- अरतिकर्म, यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते अरसमेहं-अरसमेघः, अमनोज्ञमेघः। भग० ३०६। तत्। स्था० ४६९। अरसाहारे-अरसाहारः, अरसं-हिङ् अरइमोहणिज्जं-अरतिमोहनीयम्-यद्दयवशात् ग्वादिभिरसंस्कृतमाहार-यतीति, अरसो वाऽऽहारो पुनर्बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति। तत्। प्रज्ञा० यस्यासावरसाहारः। स्था० २९८१ ४६९। अरसाहि-प्रहरणविशेषैः। उत्त० ४६० अरइयं-अरतितो जंण प्रच्चति। निशी. १८९ अ। अरसिया-अऑसि। उत्त० १२११ अरई-अरतिः, इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारः। अरसेहि-अविद्यमानरसैः। भग० ४८४१ आचा. १६८ वातादिजनितश्चित्तोदवेगः। उत्त० ३३८। अरसो-अरसः, हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतः। औप०४०। अरए-अरजाः ग्रहविशेषः। जम्ब०५३५ स्था०७९| अरहंत-अर्हन्तः, अशोकादयष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [88] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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