Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 35
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] निग्रहस्तेन निवृत्तं राजदेयतया व्यवस्थापितं दण्डिम, | अड्डपल्लाणं-आटविषये प्रसिद्धम्, यदन्यविषये कुदण्डः-अस-म्यग्निग्रहस्तेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिम, | थिल्लीरिति रूढम्। जीवा० २८२१ ते अविद्यमाने यत्र प्रमोदे सः। विपा०६३ अड्डया-कंबिका। निशी. १६७ अ। थिल्ली। भग० ३९९| अडड-चतुरशीतिरडडाङ्गशतसहस्राणि। जीवा० ३४५) अड्डवियड्डं-अर्दवितर्दम-क्रमहीनम्। ओघ. १७७। अडडंग-अडडाङ्ग, चतुरशीतिस्त्रुटितशतसहस्राणि। विप्रकीर्णम्। निशी० १३अ। जीवा० ३४६। संख्याविशेषः। स्था० ८६। भग० ८८८ अड- अड्डवियड्डा- अक्रमम्। ओध० १७६। डाङ्गः, संख्याविशेषः। सूर्य. ९१। अइडिया- अइडिका, दवात्रिंशत्, लौकिकमबद्धकरणम्। अडडाति-संख्याविशेषः। स्था० ८६। आव० ४५६। अडडे- अडडः, संख्याविशेषः। सूर्य ९१। भग० २१०, २७५, | अड्ढ-आढ्य्य म्, परिपूर्णम्। औप० १०१। ८८८1 अड्ढ-आढ्यः, धनधान्यादिभिः | परिपूर्णः। भग० १३४। अडयालं-अष्टचत्वारिंशत, प्रशस्तं वा। जीवा० १६० | अड्ढग-आढ्य्यः , सम्पन्नः। आव० २६४। अडयालशब्दो देशीवचनत्वात् प्रशंसावाची। प्रज्ञा०८६) अढरत्त-अर्द्धरात्रः, निशीथः। दशवै. १०४। देशीशब्दः प्रशंसावाची आर्धरात्रिकः। व्यव० २५५आ। अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येष् | अड्ढाइं-धनवन्ति। स्था० ४२११ तानि। जम्बू०७६| अड्ढाइज्जा-अर्द्धतृतीयानि। आव० ३९। अडयालकोटगरइय अड्ढायति-आद्रियते। आव० ८४८५ अष्टचत्वारिंशद्धेदभिन्नविचित्रच्छन्दगो-पुररचितानि। अड्ढेऊण-अवष्टम्य। आव०६२० सम० १३८१ अड्ढेज्ज-आढ्य्यत्वं-धनपतित्वं सुखकारणत्वात्सुखं अडयालकोहरइयं-अष्टचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितम्, अथवा आढ्यै क्रियमाणा इज्या-पूज्या आढ्यैज्या। अष्टचत्वा-रिंशद्धेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठकाः- स्था० ४८८ अपवरका रचिताः-स्वयमेव रचनां प्राप्ता येषु तत्। अड्ढोकंति-अर्धापक्रान्त्या। निशी० ११७ आ। प्रशस्तकोष्ठकरचितं वा। जीवा० १६० अड्ढोक्कंती- अर्धापक्रान्तिः । बृह. १९ अ। अडयालिय(ल)- शब्दः किल प्रशंसावाचकः। सम० १३८ अड्ढोरुगो-कटिविभागाच्छादकं निर्ग्रन्थ्यपकरणम्। अडविंगतो- देसं देसेण हिंडइ। व्यव० १६२ अ। ओघ० २०९। निर्ग्रन्थ्यपकरणविशेषः। निशी. १७९ आ। अडविणीहत्तं- अटवीनिःसृतम्, अरण्यान्निष्क्रान्तम्, अणं-कम्म। दशवै० १४५। अणं-अणति-गच्छति तास् उत्त० ३७५ तासु जीवो योनिष्वनेनेति पापम्, सावद्ययोगं वा। अडविमिगी-अटवीमृगी। आव० ३९२। आव० ३७३। कर्म। आचा० १४७ऋणम, कर्म। दशवै. अडवी- अटवी, अटव्यो-दूरतरजननिवासस्थाना भूमयः। ર૬રા. जम्ब०६६। अणंगकीडा-अनङ्गक्रीडा, अनङ्ग-कुचकक्षोरुवदनादि, अडिला-चर्मपक्षिविशेषः। जीवा० ४१। अडिल्ला, मोहो-दयोद्भुतस्तीवो मैथुनाध्यवसायाख्यः कामो वा, चर्मपक्षिविशेषः। प्रज्ञा० ४९। तेन तस्मिन् वा क्रीडा कृतकृत्यस्यापि स्वलिङ्गेनाहार्यैः अडुयालित्ता-आश्रित्य, बलात्कारं कृत्वा। दशवै० ३८१ काष्ठफलपुस्तमअडेइ-चढापयति, लगयति। आव० ३९० त्तिकाचर्मादिघटितप्रजननैोषिदवाच्यप्रदेशासेवनम्। अडो-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४११ आव० ८२५। कुचकक्षोरुवदनादिमोहोदयोद्धतस्तीवो अडोलिया-यवोनाम राजा तस्य हिता। बृह. १९१ अ। मैथनाध्यव-सायाख्यः कामः। आव०८२५ उंदोइयाए। बृह० १९१ अ। मैथुनादावर्थक्रियासम्प्रा-प्तकामस्य चतुर्दशो भेदः। अड्डं-तिर्यग्वलितम्। जीवा. २०७। तिर्यक्। आव. ३६७। दशवै० १९४१ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] “आगम-सागर-कोषः” [१]

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