Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-१)
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अणुग्घायाणि- गुरूणि प्रायश्चित्तानि। बृह० ६७ अ। स्था० ३। अणुपच्छाभावओ य थेवे य। बृह. ३३ अ। अणघदृता-अतृप्यन्तः। ओघ०७८१
विचारः। सम० ५० सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनम्, अणुघाईय-अणुद्घातं, न विद्यते उद्घातो
सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपः। स्था० ३। लघुकरणलक्षणो यस्य तपोविशेषस्य तत् यथाश्रुतदानं, अणुज्जंगी- अनवद्याङ्गी, शिवादेवीविशेषणम्। उत्त. तदयेषां प्रतिषेवाविशे-षतोऽस्ति ते। स्था० ३११
४१६। श्रीमहावीरस्वामिनः सुता जमाले र्या, अणुचरिया-चरिका, नगरप्राकारयोरपान्तराले। बह० ५३ | प्रियदर्शनाऽपरनाम। उत्त. १५३| ।
अणुज्जइज्जमाणाई- एकं स्वरूपतोऽनृजूनि अपरं च तेषां अणुचिण्णो-अनुचीर्णम्, आचरितम्। आव० २२७। क्वचित्कार्येऽनुपयोगात्केनचिदनक्रियमाणानि। उत्त. अनुष्टितः। ओघ० १०३
५४९। अणुचिंतणं-अनुचिन्तनम्, पर्यालोचनम्। आव० ५८९| | अणज्जता- ऋजुभावविरहितः। निशी. २८९आ। अणुचिन्नं- अनुचीर्णम् सम्यक्
अणुज्जा-अनवद्याङ्गी, श्रीमहावीरस्वामिनो ज्येष्ठा तदर्थावगमासंगशक्तिग- निवर्तकसमभावप्राप्त्या भगिनी, सुदर्शनाऽपरनाम। उत्त० १५३। धर्ममेघनामकसमाधिरूपेण परिणमितम्। जीवा०४। महावीरस्वामिनः पुत्रीनाम। आचा० ४२२॥ अनुचीर्णाः-कायसंगमागताः सम्पातिमादयः। आचा. अणुज्जियत्तं- वराकत्वम्। बृह० २आ। २१७
अणुज्जुए- अनृजुकः, कश्चिदृजूकर्तुमशक्यतया। उत्त० अणुचिय- अनुचितः-भावितःशैक्षो वा। बृह० २३८ अ। ६५६। अणुजत्तं-अनुयात्रम्। उत्त० ३०४। अनुयात्रा,
अणुज्जुकं-अनृजूकम्, वक्रम, अधर्मदवारस्य नवमं राजपाटिका। आव०७२०
नाम। प्रश्न. २६॥ अणुजत्ता-अनुयात्रा। आव० ३६५
अणुट्ठाणे- अनुत्थाने। स्था० ३३०| अणुजाए- अनुजातः, तदृशः। सूर्य० २३३
अणुट्ठिएसु-अनुत्थितेषु-श्रावकादिषु। आचा० २५६। अणुजाणं- रथयात्रा। बृह० १५५ । बृह० २५८ आ। व्यव० | | अणुट्ठिया- अनुत्थिता, निविष्टा। आव० ७२७। १७ आ।
अणुहिहंतो-अनुत्तिष्ठन्तः। बृह० ४ अ। अणुजाणपेक्खओ- अनुयानप्रेक्षकः। आव० ५७७। | अणुण्णवण- अनुज्ञापयति। ओघ० १९९। अणुजाणे- अनुजानन्। उत्त० २९३।
अणुण्णवणाजयणा- वसत्यायनुज्ञापनदोषगुणाः। अणुजाते- पितृसमः। स्था० १८४।
निशी० १२आ। अणुजायं- अनुयातं, भृतम्। जम्बू० २१२।
अणुण्णवेति- अनुज्ञापयन्ति। आव० ११७॥ अणुजीवंति-अनुजीवन्ति-तदुपार्जितवित्तायुपभोगतः | अणुण्णासं- नासिकाविनिर्गतस्वरानुगतम्। जम्बू. ४०। उप-जीवन्ति। उत्त०४४१।
अणुण्णेत्ता- अनुनीय-प्राप्य ध्यात्वा। सम० १२३। अणुजोगगत- तीर्थंकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रंथो | अणुतडियभेय-अनुतटिकाभेदः, अवटतटभेदवद् यो गण्डिका-नुयोगश्च भरतनरपतिवंशजानां
भेदः। भग० २२४१ निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्त-व्यताव्याख्यानग्रन्थ अणुतडियाभेदे- अनुतटिकाभेदः, इक्षुत्वगादिकः। प्रज्ञा० इति दविरूपेनयोगे गतोऽनयोगगतः। स्था० ४९॥
રછ| अणुजोगी-अनुयोगी-अनुयोगो-व्याख्यानं प्ररूपणं वा। | अणुत्तपत्तो- लज्जनीय। निशी० २६६ आ। स्था० ३७५
अणुत्तरं- अनुत्तरम्, सम्यक्। दशवै० १५९) अणुजोगो-अणोः-लघोः पश्चाज्जाततया वा
अनन्यसदृशः। आव०६०। अन्त्तरंअनुशब्दवाच्यस्य सूत्रस्य योऽभिधेये योगो
सर्वसंयमस्थानोपरिवर्तिनं। उत्त. ३९३| व्यापारस्तेन सम्बन्धो वा सोऽणु-योगोऽनुयोगो वेति। | अनुत्तरां- सर्वलोकाकाशोपरिवर्तिनीमतिप्रधानां वा।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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“आगम-सागर-कोषः" [१]

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