Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 25
________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अचियत्तोग्गहो- अप्रीतिकावग्रहः। आव० ३०४। आव० लेश्या वा। सूत्र. २३८ लेश्या चित्तवत्तिः । सत्र. २३४। १८९। अच्चासणयाए-अत्यन्तं सततमासनं-उपवेशनं यस्य अचिरं-स्थानम्, स्थण्डिलम्। आचा. २९४। सोऽ-त्यासनस्तद्धावस्तत्ता तया। स्था० ४४६| अचिरकालकयं-अचिरकालकृतम्, दविमासिके ऋतौ अच्चासणे- अत्यशनः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम। सूर्य यदग्न्यादिना प्राशुकीकृतम्। ओघ० १२३। १४७ अचिरवत्तवाहे-अचिरवृत्तवीवाहः। सूर्य. २९२। अच्चासाइत्तए-अत्याशातयित्म्, छायाया भंशयितुम्। अचुल्ला- चुल्लीए समीवे। निशी. ३२८१ भग०१७५ अचेल-अचेलः, अल्पचेलो जिनकल्पिको वा। आचा. अच्चासायणा-अत्याशातना, किमेभिः कलहशास्त्रैरिति। २४२। अपगतचेलोऽल्पचेलो वा अचलनस्वरुपो वा। आव० ५८० आचा० २४५यः साधर्नास्य चेलं-वस्त्रमस्तीति अचेलः, | अच्चिं-ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः। सम०१४। अल्पचेल इत्यर्थः। आचा० २४४। षष्टः परीषहः। आव. | अच्चि-अर्चिः, छिन्नज्वालम्। दशवै. २२८१ ६५६। मूलाग्निविच्छिन्ना ज्वाला। दशवै.१५४ अचेलकः-अवमानि, असाराणि लघुत्वजीर्णत्वादिना अनलविच्छिन्ना ज्वाला। जीवा. १०७ चेलानि-वस्त्राण्यस्येति। उत्त० ३५९। अच्चिकंतं-अर्चिःकान्तम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८॥ अविद्यमानचेलकः कत्सितचेलको वा। उत्त० ५००। अच्चिकूडं-अर्चिःकूटम, विमानविशेषः। जीवा० १३८। अचोक्खं- अचोक्षम्, अपवित्रम्। जीवा० २८२ अच्चिज्झयं-अर्चिव॑जम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८1 अचोक्षाः-पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० अच्चिप्पभं-अर्चिःप्रभम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८। अच्चंतत्थावरा-अत्यन्तस्थावरा, अच्चिमालिं-कृष्णराज्यवकाशान्तरे अनादिवनस्पतिकाया-वृत्त्य। आव० ३६५) लोकान्तिकविमानः। सम० १४१ भग० २७१। अच्चंतिओ-आत्यन्तिकः, सर्वकालभावी। सूत्र० ३९५) अच्चिमाली-अर्चिालिः, अर्चिषां माला। प्रज्ञा० १०१। अच्चंतिया-तेन सह तत्रैवासितुकामाः। बृह. १३२ अ। अर्चिाली, चन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। जम्बू. ५३२। अच्चइओ- व्यथितः, पीडितः। दशवै०४४। शक्राग्रमहिषीराजधानी। स्था० २३१। सूर्यस्य तृतीयाग्रअच्चणिज्जं-अर्चनीयम्। सूर्य. २६७। महिषी। स्था० २०४, भग० ५०५। चन्द्रस्याग्रमहिषी। चन्दनगन्धामिभिः। औप. ५ स्था० २०४, भग. ५०५। दक्षिणपूर्वरतिकरपर्वतस्याअच्चणिज्जाओ-चन्दनादिना। भग० ३५० परस्यां शक्रदेवेन्द्रस्य शच्या अग्रमहिष्या राजधानी। अच्चणिय-अर्चनिका। आव. ३५०| जीवा० ३६५ अर्चीषि-किरणास्तेषां माला, अच्चणियवावडा-अर्चनिकाव्यापृता। आव० ८६३। साऽस्यास्तीति किर-णमालापरिवृत इति। जीवा० ३८७। अच्चंतो-विबुद्धोवि जं फुडं ण संभरति संभरतो वा चन्द्रस्य सूर्यस्य च ज्योतिषेन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। जस्सत्यं ण वि बुज्झति सो अच्चंतो। निशी० ८६अ। जीवा० ३८४। कृष्ण-राज्यवकाशान्तरे अन्त-मति-क्रान्तोऽत्यन्तः। उत्त०६२११ अनादिः। लोकान्तिकविमानः। स्था० ४३२१ द्वितीयं उत्त० ६२१। अतिक्रान्तपर्यन्तम्। उत्त०६३९। लोकान्तिकविमानम्। भग० २७१। अच्चल्लीणो-आसण्णं। निशी. १७५अ। अच्चिरावत्तं-अर्चिरावतम्, विमानविशषः। जीवा० अच्चल्लूढो-अतीव प्रज्वलिते। निशी. १७५अ। अच्चसणे-अत्यशनः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम। अच्चिरुत्तरावडिंसए-अर्चिरुत्तरावतंसकम, जम्बू०४९० विमानविशेषः। जीवा. १३८५ अच्चा-प्रतिमा। बृह. २६ आ। निशी. ११७ आ। अर्चा, | अच्चिलेस्सं-अर्चिर्लेश्यम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८1 मनुष्यतनुर्भाविनी। औप० ८१। तनुः, शरीरं, पद्मादिका | अच्चिवन्नं- अर्चिवर्णम्, विमानविशेषः। जीवा० १३८१ १३८ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [25] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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