Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 93
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] निशी. ३३२ आ। २७८। गुरुमाश्रितः। औप० ८८। इषल्लीनः। आव० १९७। अलोलुओ-अप्पडिबद्धो। दशवै० १४० आलीनः। आव०६३ आश्रितः (आतु०)| आसमन्तात् अलोहे- अलोभः, योगसङ्ग्रहेऽष्टमो योगः। आव०६६४। लीना आलीना। व्यव० ४४० आ। स्वल्पलोभः। जम्बू. १४८१ अल्लेसेहि-अश्लेषैः। आव०६३ अलौकिकत्वम्-असाधारणम्। दशवै. १६७ अवं- (अवाङ्), अधस्तात्। आचा० ६३| अल्पझञ्झ-अविद्यामानवाक्कलहः। उत्त० ५८९। अवंगाओ-अपाङ्गाः, नयनप्रान्तम्। जम्बू. ५२ अल्पपरिकर्माणि- यानि क्वचिन्मनाक तूर्णितानि। अवंगुअ-अप्रावृतम्। निशी० २०४ अ। ओघ. १३२ अवंगुदुवारे-अप्रावृत्तद्वारःअल्पलेपा-चतुर्थी पिण्डैषणा। आचा० २५७। कपाटादिभिरस्थगितगृहदवारः। औप. १००। अल्लइ- वृक्षविशेषः। भग० ८०३। अवंगुय-अप्रावृत्तम्, न स्थगयति। बृह० २५आ, १६४। अल्लइकुसुमं- अल्लकीकुसुमम्, लोके प्रतीतम्। प्रज्ञा० | अवंगुतंमि-उद्द्याटिते। बृह. २५० आ। ३६१। जम्बू० ३४१ अवंगुयदुवारो- अप्रावृतद्वारः, अप्रावृतं द्वारं येन सः, उद् अल्लग-आर्द्रकम, कन्दविशेषः। आव० ८२८1 आई द्घाटितद्वारः। सूत्र० ३३५ आर्द्रकं च। आव० ८२८१ अवंगो- अपाङ्गः, नयनोपान्तम्। जीवा० २०६। अल्लपल्लो- अली, वृश्चिकपच्छाकृतिः। विपा०७१। अवंझ-अवन्ध्यं, एकादशपूर्वनाम। स्था० १९९। अल्लय-आर्द्र (संस्ता०) अवंझपुव्वं-अवन्ध्यपूर्व-यत्र सम्यग्ज्ञानादयोऽवंध्याःअल्लिउं-अभिद्रोतम, आश्रयितं वा। आव० ४३७। सफला वर्ण्यन्ते तत्, एकादशपूर्वनाम। सम० २६। अल्लितो-अर्पितः। आव०४३४। अवंतिवद्धण-अवन्तीवर्धनः अज्ञातोदाहरणे अल्लियतुं- उपसर्तुम्। आव०६५) प्रद्योतात्मजपा-लकस्तः। आव० ६९९| अल्लियंतो-आश्रयन्। आव०४००। अवंतिसुकमार-प्राणिनः आहारविमोचने दृष्टांतः। आचा. अल्लियइ-आश्रयति। आव०६९५) २९१। अल्लियस्सह-आश्रयत। उत्त० ३९६। अवंतिसुकुमालो-अवन्तिस्कमालः, योगसङ् अल्लियह-आलीयेताम्-आश्रयताम्। उत्त० ३९४। ओघ० ग्रहेऽनिश्रितोप-धानदृष्टान्ते उज्जयिन्यां सुभद्रापुत्रः। १५९| आव० ६७०। वंश-कुडंगेऽनशनी (मरण०)। अल्लियावं- प्रवेशम्। आव० ३४१। शृगालीभक्षितः (भक्त)। अल्लियावणबंधे-अल्लियावणं-द्रव्यस्य अवंतिसेण-अवन्तीषेणः, अज्ञातोदाहरणे धारिणीपुत्रः। द्रव्यान्तरेणश्लेषादिना-ssलीनस्थ यत्करणं तद्पो यो आव०६९९। बन्धः सः। भग० ३९५ अवंती- देशविशेषः। बृह. २१८ अ। उत्त०४९। अल्लियावो- प्रवेशः, आश्रयणम्। उत्त०१४५ अवंतीजणवए-अवन्तीजनपदः, देशविशेषः। आव. २८९। अल्लिविओ-अर्पितः। आव० ४२१। उत्त०४९। निशी. ६४ आ। अल्लिवेइ- अर्पयति, सुश्लिष्टम्। जम्ब० ५२९। आलीनः मस्तकभित्तौ किञ्चिल्लग्नो न तु टप्परौ। जम्बू अवंतीसकुमार-नामविशेषः, उदाहरणविशेषः। ब्रह. २२४ ११३। मनोवाक्कायगुप्तावाश्रितौ वा, यद्वा अलीनौपृथगवस्थानेन परस्परमश्लिष्टौ। उत्त० ४९९। | अवंतीसुकुमालो- नामविशेषः, उदाहरणविशेषः। बृह० गुरुजनमाश्रितः। अनुशा-सनेऽपि न गुरुषु २२४ । द्वेषमापद्यन्ते, अथवा आ–समन्तात्सर्वासु क्रियासु | अवंतीसुकुमालो-वंशकुडंगेऽनशनी (मरण)। शृगालीलीना-गुप्ता नोल्वणचेष्टाकारिणः। जम्बू. ११७। जीवा० | भक्षितः (भक्त०) अ॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [93] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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