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[श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
नशा उतर जाता है । नशा उतरने के बाद वह यह नहीं जानता कि मैं यहाँ कहाँ से और कैसे प्रागया। इसी तरह यह प्राणी मतिज्ञानावरण कर्म का प्रावरण होने से यह नहीं जान पाता कि मैं यहाँ कहाँ से आया ? उस प्राणी को अपने शरीर के अधिष्ठाता-प्रात्मा का भी भान नहीं होता। उसे यह विचार ही नहीं पैदा होता कि मेरी आत्मा भवान्तर में-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरकगति में गमनागमन करती है या नहीं? मैं पहले भव में कौन था? और यहाँ से श्रायुष्य पूर्णकर परलोक में क्या बनूंगा?
इस सूत्र के पूर्वभाग में साक्षात् प्रज्ञापकदिशा का कथन किया इसलिए "के अहं प्रासी ? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्लामि" इससे भावदिशा का साक्षात् निर्देश किया गया है।
-श्रात्मा के अस्तित्व में शंकाशंका-शंकाकार शंका करता है कि अपने प्रात्मा के दिशा-विदिशा से आने और भवान्तर में संचरण करने के ज्ञान का किन्हीं २ प्राणियों में निषेध किया है। यह निषेध करना तब ठीक होता जब आत्मा की सिद्धि हो जाती। 'सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते' अर्थात् धर्मी के होने पर ही धर्मों का विचार किया जाता है। आत्मा ही सिद्ध नहीं है तो उसके गुणों का विचार ही कैसे हो सकता है ? मूल के बिना शाखाओं का सद्भाव कैसे ?
प्रात्मा की सिद्धि किसी भी प्रमाण के द्वारा नहीं होती । प्रमाण के छः भेद हैं:-(१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान (३) उपमान (४) अागम (५) अर्थापत्ति और (६) अभाव ।
प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रात्मा का ग्रहण नहीं होता क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों से इसका ज्ञान नहीं होता । जैसे घट पटादि पदार्थ विद्यमान हैं तो उन्हें हम चक्षु आदि से देख सकते हैं वैसे आत्मा का चक्षु आदि के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होता अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती।
अनुमान प्रमाण से भी आत्मा सिद्ध नहीं होती। क्योंकि उसके अतीन्द्रिय होने से साध्यसाधक के सम्बन्ध रूप अविनाभाव का ग्रहण सम्भव नहीं है। जिस प्रकार अग्नि और धूम का अविनाभाव सम्बन्ध प्रत्यक्ष है उस तरह इसके अविनाभाव का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि यह अतीन्द्रिय है । ऐसा कोई अविनाभावी लिङ्ग नहीं है जिसे देखकर आत्मा का अनुमान किया जा सके।
प्रात्मा का प्रत्यक्ष न होने से उसके समान किसी दूसरी वस्तु का भी कथन नहीं हो सकता जिसके द्वारा आत्मा का ग्रहण हो । अतः उपमान प्रमाण द्वारा भी उसकी सिद्धि नहीं होती ।
भागम भी परस्पर विरोधी हैं। कोई उसे नित्य कहता है, कोई उसे अनित्य कहता है, कोई उसे सर्वव्यापी कहता है और कोई उसे शरीर-प्रमाण कहता है । अतः परस्पर विरोधी होने से आगम भी आत्मा का साधक प्रमाण नहीं बन सकता ।
जिस पदार्थ के बिना जो चीज़ नहीं बन सकती उसे देखकर उस पदार्थ का ग्रहण करना अर्थापत्ति प्रमाण है। जैसे पर्वत पर वर्षा हुए बिना पहाड़ी नदी में बाढ़ नहीं आ सकती तो पहाड़ी
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