Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 55
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३) [Type text] ३७४। जीवा० १२१ स्थिरः प्रकृतपटं पाटयतोऽकम्पोऽग्रहस्तोथिइ-स्त्री पुरुषादि। भग० २५३। हस्ताग्रं यस्य सः। अनुयो० १७५। थिग्गल-आकाशथिग्गलविषयम्। प्रज्ञा. २९३। थिरपइन्नो-स्थिरप्रतिज्ञः-यो न भवितमन्यथा करोति। प्रदेशपतित-संस्कृतम्। आचा० ३४१। जं घरस्स दारं आव०८६० पुव्वमासातपडि-पूरियं दारं। दारमेव संधारवत्तं थिरपरिवाडी-स्थिरपरिपाटी स्थिरपरिचितग्रन्थस्य सूत्रं पडिढक्किययं। दशवै. ७६ आ। थिग्गलं चित्तं न गलति। दशवै. ५ स्थिरपरिपाटिः, परिचितग्रन्थस्य दवारादि। दशवै. १६६। शकलम्। मरण| गिम्हे सूत्रार्थ-गलनासम्भवात्। आचा. २ वातागमट्ठा गवक्खादिछिड्डे करेंति। निशी० २३२आ। थिरीकरण- स्थिरीकरणं-धर्माद विषीदतां तत्रैव थिबुकं-बिंदु। निशी० पह०६७आ। स्थापनम्। प्रज्ञा० ५६ स्थिरीकरणं-धर्मादविषीदतां सतां थिबगो-स्तिबकः उस्साबिंद। आव० ८४५। तत्रैव स्था-पनम्। दशवै. १०२ थिबुय-स्तिबुकम्। प्रज्ञा० ४११। थिरुगा-अनन्तकायभेदः। भग० ३०० थिमिओदयं-स्तिमितोदकं यस्याधःकर्दमो नास्ति। थिल्लिथिल्ली-वाहनविशेषः। उत्त० ४३८ लाटानां औप. ९४१ यदड्ड-पल्लाणं रूढं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते। थिमित-स्तिमितं-स्थिरं कायचापल्यादिरहितं च। प्रश्न. अनुयो.१५९। वेसरादिदवयविनिर्मितो यानविशेषः। १३३। स्तिमितः-अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य पञ्चमम- जम्बू. १२३। थिल्ली-वेगसराद्वयविनिर्मितो ध्ययनम्। अन्त०१॥ यानविशेषः। सूत्र० ३३०| थिल्ली- लाटानां थिमिया-स्तिमिता यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते। भग. स्वचक्रपरचक्रादिसमुत्थभयकल्लोलमा-लावर्जिता। १८७, २३७। लाटानां यद अड्डपल्लाणं रूढं तदन्य-विषये जम्बू०१४ थिल्लिरित्युच्यते। जीवा० २८२। थिमियमेयणीया-स्तिमितमेदनीका निर्भयत्वेन थिल्लीओ-लाटानां यानि अड्डपल्यानानि स्थिरविश्व-म्भराश्रितजना। प्रश्न०६९। | तान्यन्यविषयेष थिल्लीओ। भग. ५४७। थिमियमेइणीय-स्तिमितमेदनीकं थिविथिवंत-गुंजन्। तन्दु० । अतिशयेन। तन्दु०। निर्भयमेदिनीनिवासिजनम्। प्रश्न. ९२ थिवथिवित-अनुकरणशब्दोऽयम्। विपा०७४। थिमिया- स्तिमिता भयवर्जितत्वेन स्थिरा। औप०११ | थिचोरो-स्त्रियाः आकाशात् स्त्रियमेव वा चोरयति थिर-सप्रतिष्ठानं दृढं वा। बृह० २४४ आ। दढसंघयणो। | स्त्रीरूपो वा यश्वौरः स स्त्रीचौरः। प्रश्न.४६। निशी. ५६अ। स्थिरः-दृढसंहननः। ओघ० ३४ स्थिरः- | थिणं-स्त्यानर्द्धिः स्त्याना-चैतन्यऋद्धिर्यस्यां सा असङ्ख्येकालावस्थायी। सूत्र०६। स्थिरः-संह स्त्याना। आव० ८४। इदं चित्तं तं थीणं। निशी. ३६अ। ननतिभ्यां बलवान्। पौनःपन्यकरणेन परिचितो वा | थीणद्धी-स्त्याना-पिण्डीभूता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपा कृत-योगः। आव. ५९३। धितिसंघयणेहिं बलवं अहवा यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानर्द्धिः। प्रज्ञा० ४६७। इत्थं दरिसणे पव्वज्जाए वा धिरो अचलेत्यर्थः। निशी. १३१ चित्तं तं थीणं जस्स अच्चंत दरिसावरणकम्मोदया सा आ। यथास्थितम्। ओघ० १०८1 अप्रकम्पः । ज्ञाता० १६॥ थीणद्धी। निशी. ३६अ। स्थिरं च यद्भवति सुप्रतिष्ठानं तत्। ओघ० २११। स्थैर्य- थीणा-स्त्याना-पिण्डीभता। प्रज्ञा० ४६७। अभ्युप-गतापरित्यागः। दशवै. ३९ स्थिरः निष्पन्नः। थीणागेद्धी-स्था० ४४७१ दशवै० २१९। स्थिरः-धृतिसंहननाभ्यां बलवान्। व्यव० थीपरिणा-स्त्रीपरिज्ञा-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे ११३॥ चतुर्थम-ध्ययनम्। आव० ६५१। उत्त०६१४| थिरइ-स्थिरति स्थिरीभवति। व्यव० १९ आ। | थीपुरिससंजोए-अशुचिस्थानभेदः। प्रज्ञा० ५०| थिरग्गहत्थे-स्थिरौ अग्रहस्तौ यस्य सः स्थिराग्रहस्तः। थीविलोअणं-स्त्रीविलोचनं तैतिलमिति वा, चतर्थं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [55] "आगम-सागर-कोषः" [३]

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