Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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तद्भूतं-संयमानुष्ठानम्, कर्म वा। सूत्र०६९। | धुववन्नं-ध्रुवः अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं धूयरए- धुयरजस्कः । ओघ० २२६। सम०४४।
ध्रुवा। आचा. २९५ धुयसीलया- अट्ठारससीलंगसहस्सेस् सययं उज्जुत्ता। धुवसीलया-ध्रुवशीलता दशवै० १२४।
अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपा। दशवै० २३५) धुरए- धुरकः। जम्बू० ५३५)
धुवा- धूवा ध्रुवत्वात् त्रिकालभाविनी। जीवा० ९९। धुरतुण्डे- धुरि। दशवै० १०५
त्रिकाला-वस्थायित्वात् ध्रुवा। जम्बू. २७) धुवं- ध्रुवमव्यन्तं सर्वदेत्यर्थः। स्था० ३६३। ध्रुवं कर्म धुसुलिंती- दध्यादिमश्नती। पिण्ड० १५७ संसारो वा। अनुयो० ३११
धूः- चिन्ता। पिण्ड० ३६। अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावः। सूत्र० ३७०| ध्रुवं- धूआ- पुत्री। जम्बू. १४९। धूता सुता। आव० १५४। आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कंधस्य षष्ठम-ध्ययनम्। धुतं- धनातीति धृतं चारित्रम्। आचा० १२२॥ प्रश्न. १४५। धूवं-आचाराङ्गस्य षष्ठमध्ययनम्। उत्त | धूमो-दोसो। निशी० ४९ अ। धूमः भोजने दोष-विशेषः। ६१६ नित्यं-संपूर्णं सर्वत्रप्रधानोपसर्जनभावेन वा। भग. १२२१ हिंग्वादिसत्को वघारः। पिण्ड० ८४| दशवै० २३५। निश्चितः अचलत्वाद ध्रुवः नित्यतरूपः। आन्तप्रान्तादाताहारद्वेषाच्चारित्रस्याभिघूमनाद् भग० ११९। ध्रुवत्वं सर्वदैवं भावान्नियतो
धूम्रदोषः। आचा० ३५१। अभिभवे। बृह. ४९ अ। त्रिकालभावित्वाद् ध्रुवः। स्था० ३३३। दढं थिरं। निशी. मनःशिलादि-सम्बन्धि। उत्त० ४१७) २४४ आ। षष्ठम-आचारप्रकल्पः । आव०६६०| ध्रुवं- चारित्रेन्धनधूमहेतुत्वात् धूमः दवेषः। भग० २९२। पर्वतिथिभाविभोज्यम्। बृह. १९२ आ।
धूमइंगाल-धूमाङ्गारकं द्वेषरागौ। ओघ० १८७। धुवकडुच्छुयं-धूपकइच्छुकम्। जीवा० २३५
धूमकेउ-धूमकेतुः धूमचिह्नो धूमध्वजः नोल्कादिरूपः। धुवकम्मिओ- ध्रुवकर्मिको लोहकारादिः। ओघ० ७७। । दशवै० ९५ धुवकम्मी- लोहकारो रहकारो कुंभकारो तंतुकारो। निशी० । धूमकेऊ-धूमकेतुः अष्टात्रिंशत्तमो महाग्रहः। स्था०७९| ३६० आ। काष्ठसूत्रधारादयः। बृह. १० अ।
जम्बू०५३५ धुवगंडिया- ध्रुवगण्डिका। दशवै० १४०
धूमपलिआमं- णाम जहा खड्डं खणित्ता तत्थकारी सो धुवघडी- धूपघटी धूपघटिका। जीवा० २०६।
छब्भती तीसे खड्डाए परिपरंतेहिं अण्णाओ खड्डाओ धुवचारिणो- ध्रुवो मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं खणित्ताओ सुतेंदुआदीणि फलाणि छुभित्ता जा सा
तदाचरितुं शीलं येषां ते ध्रुवचारिणः। आचा० १२२।। करीसग खड्डगा तत्थ अग्गी छब्भति तासिंच धुवण- ग्लानस्य धावनं प्रक्षालनम्। ओघ० ४१। धावनम्। तेंदुगखड्डाणं सो आतंकारी स खड्ड मिलिया ताहे धूमो स्था० ३३९। धुवनं धावनं
तेहिं सो तेहिं पिविसन्ता ताणि फलाणि पाथेति तेणं ते शुभाध्यवसायान्मिथ्यात्वपुद्ग-लानां
पच्चंति तत्थ जे अपक्का ते धुमपलियाम भण्णति। सम्यक्त्वभावसंजनमिति। आचा. २९८१
निशी० १२५आ। धुवनिग्गहो- अत्रानाचित्वात् क्वचिदपर्यवसितत्वाश्च ध्रुवं | धूमप्पभा- धूमप्रभा। प्रज्ञा० ४३। कर्म तत्फलभूतः संसारो वा तस्य निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो धूमप्रभा- धूमाभद्रव्योपलक्षिता पृथ्वी। अन्यो० ८९। ध्रुवनिग्रहः। अनुयो० ३१॥
धूमवदि-धूमवर्ति धूमश्रेणिम्। जम्बू. १९३) धुवरासी-ध्रुवराशिः। सूर्य०४९।
धूमवण्णा-धूम्रवर्णाः पाण्ड्राः। ज्ञाता० २३१। धुवराहु- यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति स | धूमाहिति-धूमायिष्यन्ते धूममुद्वमिष्यन्ति। जम्बू. ध्रुव-राहुः। सूर्य० २९०। भग० ५७६|
१६७। भग० ३०६| धुवलोअ-ध्रुवलोचः ध्रुवः प्रतिदिनभावी लोचः। बृह० २२३ | धूमिआ-धूमिका रूक्षा प्रविरला धूमाभा। अनुयो० १२११ अ। दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः। निशी० ३४३। धूमिता-धूमिका महिकाभेदो वर्णतो धूमिका धूमाकारा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]

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