Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 156
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३) [Type text] प्रयोगः-कला-न्तरम्। जम्बू० २३२। प्रयोगः थेरकप्पिया संथारूत्तरपट्टेस स्वंति एस पकप्पो। निशी. स्वकलसाधनव्यापारः। दशवै. १२३| कायादिप्रयोगः। १६१ आ। णिसीहज्झयणं| निशी० ८१ । प्रकल्पःव्यव० ३९७ अ। आचारः, आसेवा। स्था० १४३। अध्ययनविशेषः, पओगकरण- प्रयोगकरणम्। उत्त० १९७। निशीथः, व्यवस्थापनम्। सम०४८। प्रकल्प्यं पओगकिरिया- प्रयोगक्रिया मनोवाक्कायलक्षणा। सूत्र. प्रकल्पनीयं पिण्डादि। स्था० ३०० प्रकल्प:३०४। प्रयोगक्रिया, विंशतिक्रियामध्ये षोडशमी। आव. अष्टाशीतिग्रहेषुद्वापञ्चाशतम। जम्बू०५३५। प्रकल्पः६१२ प्रयोगो-मनोवाक्कायलक्षणस्तस्य क्रिया-करणं निशीथाध्ययनम्। व्यव० ४०आ। णिसीह। निशी. १०० व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगैः आ। मनःप्रभृतिभिः क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया पकम्मति- प्रक्रमते प्रक्रमते प्रकर्षेण प्रभवतीत्यर्थः। स्था. कर्मेत्यर्थः। स्था० १५३। ४३३ पओगगती- प्रयोगः-प्रागुक्तः पञ्चदशविधः स एव गतिः पकरण-प्रकरण प्रक्रिया। प्रश्न. १४१। प्र-योगगतिः। प्रज्ञा० ३२५१ पकरणेयसुत्तं- प्रकरणसूत्रम्। बृह. ५० आ। पओगपरिणया-जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः। पकरेइ- बध्नाति। भग० ५१। स्थितिबन्धापेक्षया भग. ३२८१ बद्धावस्था-पेक्षया वा पकरेइ। भग० १०२। बन्धाति। पओगबंधे- जीवप्रयोगकृतः। भग० ३९४| प्रज्ञा०४०७। प्रकरोति-प्रकर्षण बध्नाति। पिण्ड०४१। पओट्ठ- प्रविष्टः। बृह० २३१ अ। पकरेति-प्रकरोति वेदयते बध्नाति च। भग. ९८ पओय- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। पकाम- प्रकाम-अत्यर्थम्। ज्ञाता० ३१। प्रकाम-अत्यर्थम्। पओयणं- पहयोजनं-अवश्यकरणीयं प्रयोजनम्। प्रश्न भग० २९३ अनेकशः। बृह. १४ अ। २४। प्रयोजनम्। प्रज्ञा० ४४७। येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत् पकारफकारबकारभकारमकारप्रविभक्तिप्रयोज-नम्। आव० ३७७ एकोनविंशतितमो नाट्यविधिः। जीवा. २४७। पओयलट्ठो- प्रतोत्रयष्ठिः- प्राजनकदण्डम्। औप०६४। पकामरसभोई- अत्यर्थमन्नभोक्ता। औप० ३८ पओलग्गिओ- प्रावलग्नः। आव. १८७ पकित्तिया- प्रकीर्तिताः- प्रकर्षेण सन्देहापनेतृत्वलक्षणेन पओलिता- पक्त्वा । उत्त. १७९| संशब्दिताः। उत्त०६७६। पओस- प्रद्वेषम्। ओघ० १४९। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५५ | पकिन्ना- प्रकीर्णानि दत्तानि। उत्त० ३६१। प्रदोष-द्वेषम्। उत्त०६३३। राराघप्रहरः। स्था० २१४। पकीण्णं- प्रकीर्णं विक्षिप्तम्। प्रश्न. १५४ प्रदोषः। आव०६४० पकुव्व- खण्डशः कृत्वा। सूत्र० १९३) पओसकाल- प्रदोषकाले-रजनीमुखसमयः। उत्त० ५३९। | पकुव्वए- आलोचितेष्वपराधेषु प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धि पओसा- प्रदवेषः क्रोधादिः, नवमी प्रतिसेवा। भग. ९१९। कारयितुं समर्थः। भग० ९२० पओसिया- जनपदविशेषः। भग० ४६० पकुव्वी- आलोइए जो पच्छितं कारवेति सो पकुव्वीः। पकंठगा-पीठविशेषः, आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनप्रदेशौ पीठौ निशी० १२८ आ। आलोचिते शुद्धिकरणसमर्थः। स्था० प्रकण्ठौ। जम्बू० ५३ ४८६] पकट्ठय- प्रकर्षयति-आकर्षयतीत्यर्थः। व्यव० ८६ आ। पकोहए- प्रकोष्ठकः-कलाचिका। जम्बू. ५२७। पकप्प- प्रकल्पः-अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्पः, पकोट्ठी- प्रकोष्ठी:-कलाचिका। प्रश्न.८१। निशी-थान्तमाचारङ्गमिति। प्रश्न. १५४ प्रकर्षण पक्क-पक्वं-पाकप्राप्तम्। दशवै०२१८ पक्व:कल्पः प्रकल्पः-प्ररूपणा, प्रकर्षकल्पो वा प्रकल्पः- पाकप्राप्तः। आचा० ३९१। पक्वः-काठिन्यम्पगतः। प्रकल्पप्रधानेत्यर्थः, कल्पनं पकल्पो छेदनेत्यर्थः। ज्ञाता०११६। आसखडिकः-कलहनशिलः। ब्रह. २९३ प्रकर्षादवा कल्पनं। प्रकल्पः। निशी० २१ आ। अ। जं० अग्गिणा पउलियं पक्कं| निशी. १५७ अ। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [156] "आगम-सागर-कोषः" [३]

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