Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 53
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३) [Type text] चन्दावतं-सान्तःपुरिका। पिण्ड०७६) जातः, हनुयन्त्रादि। आव० ४०५१ त्रिवासरवटकं- कथितस्वस्वभावचलिते दृष्टान्तः। जीवा. | थंभय-स्तम्भकः- आदर्शकगण्डप्रतिबन्धप्रदेशः, ૨૮રા. आदर्शक-गण्डानां मुष्टिग्रहणयोग्यः प्रदेशः। जीवा० त्रिशला- वर्द्धमानस्वामिनः मातृनाम। सम० ८९। २१३ त्रिशूल- शक्तिः । सम० १५७। थंभिज्जा-स्तभ्नीयात्-स्तब्धो भवेत् मादयेदित्यर्थः। त्रिशूलानि-वरशक्तयः। जम्बू. २१२। स्था०४७३ त्रुटितं-वादित्रम्। जीवा. १६२१ थंभुग्गया-स्तम्भोगता-स्तम्भोपरिवर्तिनी। जीवा. त्रेहः-अवश्यायः। प्रज्ञा० २८ दशवै० १५३। जीवा० २५४ २२७, ३५९। उसा। निशी० ८३। थ-निपातः। आव० १३७। वाक्यालङ्कारे। ज्ञाता० १४९। त्रैराशिकः- राशित्रयम्। सूर्य. १४१ निपातः पादपूरणे। बृह. १७१ आ। त्रैराशिककरणं- प्रज्ञा० ४८० थक्क-स्थितम्। ओघ० १३२। अवसरः। आव० ४००। विद्यब्राह्मणः- सामज्ञो ब्राह्मणः। औ० २०४। उत्त. २१४। थक्कः-देशः। काले। निशी. १७८ अ। विद्यवृद्धः- वैदिकः। दशवै० १२७। निशी० ६आ। प्रस्तावः। व्यव० १३६ आ। त्वंगनिका-बाधाविशेषः। उत्त० ७८ थक्कारेति- थक्कइत्येवं महता शब्देन करोति। जीवा. त्वक्- छविः। जीवा० ११४| छल्ली। जीवा. १८७) २४८१ त्वग्विष- चर्मविषः। नन्दी. १६३| थक्केथक्कावडियं-अवसरे अवसरानुरूपमापतति तत्। त्वचा-त्वग्विशेषः। जीवा० १३६) पिण्ड०६३ -x-x-x-x थण-स्तनम्। आव०७६८1 स्तनम्। आव० ५७८। थ थणदुद्धगंधियमुहो- बालः। निशी. ८० आ। थंडिल-छारचितीवज्जितं केवलं मडयदद्वद्वाणं। निशी थणियकुमारा-स्तनितकुमाराः-भवनपतिभेदविशेषः। १९२ आ। स्थण्डिलं उच्चारभूमिः। आव० ५७८। अचित प्रज्ञा०६९। स्तनितकुमाराःभूमी। निशी० ३८ आ। यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवे वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवतिनो देवाः। भग. कविकलत्वात्स्थण्डिलवद्भवति स स्थण्डिलः-क्रोधः। १९९| सूत्र.१८० थणियकुमारीओ-स्तनितकुमार्यः थंडिल्लं-स्थाण्डिलं-भूभागः। आव० ६४२ स्थण्डिलम्। वरुणस्याज्ञोपपातवचननि-र्देशवतिन्यो देव्यः। भग० आव० ३४८ स्थण्डिलः। आव. १९५१ १९९। थंभ-स्तम्भं जात्यादयभिमानम। आव० ३४६। स्तम्भः थंड-स्तब्धं जात्यादिमदस्तब्ध-कृतिकर्मणि द्वितीयोः मानः। दशवै० २४श स्तम्भः। आव० १९६। स्तम्भः दोषः। आव० ५४३॥ स्तब्धं-सुदृढम्। जम्बू० २३५) मानः। आव० ८४८। जात्यादिसमुत्थोऽहङ्कारः। उत्त० स्तब्धाय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयभंशकारिणे। १५१ सूर्य. २९६ थंभण-ग्रीवायां धमण्यादीनां तिष्ठतो थप्पगा-स्थाप्या अवन्दनीयाः। बृह. ३०५। वाऽऽत्मनोऽङ्गप्रदेशानां स्तम्भनम्। प्रज्ञा० ३२९| थरथरंत-कम्पमानः। पिण्ड० १६३। भृशं कम्पमानः। थंमणता-स्तम्भनता स्तम्भनया या यथा तावदुपविष्टः बृह. ७१ । स्थितो यावत् सुप्तः पादादिः स्तब्धो जातः। स्था० थल-स्थलं आकाशः। ओघ० ३२। आकाशः। बृह० १६१| ૨૮૦૧ आ। इह कवलप्रक्षेपणाय मुखे विड्विंते यदाकाशं भवति थंमणया-स्तम्भनं ऊर्वीकरणम्। औप. ९३। तत् स्थलम्। व्यव० ३३३ आ। आगासं। निशी० ४६ आ। स्तम्भनताव-कगतेवितीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२८। जलपरिहारेण स्थितो नदि-कूर्परपथः। ब्रह. १६२ अ। स्तम्भनता-तावदुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः स्तब्धो । मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [53] "आगम-सागर-कोषः" [३]

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