Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 201
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३) [Type text] परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्म-धर्मः। आव० ४१५। समन्तान्नमनम्। जम्बू। सर्व-थाऽपारित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रुपान्तरेण भवनं परिणामः। अनुयो० १२०| संघर्षम्। आचा० ३६३। परिणामः-परि-समापकः। जम्बू. ५०५ परिणामःप्रज्ञापनायां त्रयोद-शमं पदम्। प्रज्ञा०६। परिणामःइहलोकादयाशंसालक्षणः। आव० ८४८ परिणामःविश्रसारूपः। भग० १८८ परिणामः-परिणतिः। औप० ९९। परिणामः-अध्यवसाय-विशेषः। आव० ३३९। परिणाम-पर्यायान्तरापत्तिलक्षणम्। दशवै. २३७। परिणामः-आहारपरिपाकः। जम्बू. १२७। परिणामःपरिपाकः। जम्बू. १६८ भवांतरगमणं। दशवै० १२७। परिः-समन्तान्नमनं परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः। भग० ५७३। परिणामः जीवपरिणतिः। जम्बू. २७९। परिणामःआहारपाकः। जीवा० २७७। परिणामःद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीवशतस्तत्तद्-पास्कन्दनम्। जीवा. ३७४। परिणामः-आहारपरिणतिः। प्रश्न० ८३ परिणामः-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम्। स्था० २०११ परिणामः-आकारबोधक्रियाभेदात् त्रिधा। स्था० १८३। परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः। स्था० २८३। परिणामः पर्यायः स्वभावः धर्मः। स्था० ३७५। परिणामः-विपाकः। स्था० ३७५ परिणामः-अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमित्यर्थः। स्था० ३७८परिणामः-धर्मः। सम० ४२ । परिणामं परिसमापकम। सर्य.१११। नन्दी. १४४ परिणामक-तत्तथा श्रद्दधाति तमेवं श्रद्धानं रोचयंतं जानीहि परिणामकं साधम्। बृह० १३२ अ। परिणामगा-अववादसद्दहणा। निशी० ३२४ आ। परिणामणय-परिणतिरिन्द्रियादिविभागः। भग०६०४। शब्दादिविषयोपभोगः। सम. १४६| परिणामपयं-प्रज्ञापनानां त्रयोदशं पदम्। भग० ६४१। परिणामिकारणं- मृत्पिण्डः। स्था० ४९४। परिणामिणी-कायिकी। बृह. १४८ अ। परिणामिया-परिणामान्तरमापादितम्। भग. १७९। परिणामेइ-कथयति। आव०४२३ परिणामेज्जमाणे- परिणम्यमानः। स्था० ४७२। परिणाह-परिणाहः-ज्याधनःपृष्ठयोर्यत्प्रमाणम्। स्था० ६८परिणाहः-परिधिः। स्था०६९। परिणाहःमध्यपरिधिः। जम्बू. २३४। परिणाहः-परिधिः। जम्बू. ३१२ परिणाहः-परिधिः। स्था० ६८ वित्थारो। निशी० २६६ आ। नातिस्थौल्यं नातिर्बलता बाह्वोर्विष्कम्भोर्वा। बृह. ३०९ आ। परिणिट्ठिय-परिनिष्ठितं-सुनिष्पन्नम्। जम्बू. २११। परिणिट्ठिय-परिनिष्ठितं-सिद्धम्। उत्त० ११७ परिनिष्ठितः-ज्ञाननिष्ठां प्राप्तः। आव. २६४। परार्थमचित्तीकृतम्। बृह. १०६ अ। परि-समन्तात् निष्ठितः परिनिष्ठितो, ज्ञान-निष्ठां प्राप्त इत्यर्थः। आव. २६४। परिणिव्वाइ-परिनिर्वाति सामस्त्येन शीतीभवति। प्रज्ञा. ६०६। परिणिव्वाण-परिनिर्वाणं-मरणम्। भग० १२९। मृतशरीरप-रिष्ठापनम्। भग० १२९। परिणिव्वाणवत्तियं-परिनिर्वाणं-मरणं तत्र यच्छरीरस्य परि-ष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययोहेतुर्यस्य सः परिनिर्वाणप्रत्ययम्। भग. १२९। परिणिव्वाति-परिनिर्वातिसकलकर्मकृतविकारव्यतिकर-निराकरणेन शीतिभवति। स्था० १८११ परिणिव्वुय- परिनिवृतः कषायान्युपशमनः-समन्तात् शीतीभूतः। उत्त० ३४१। परिणता-अभिग्गहिया। निशी. १११। परिणा-परिज्ञा-अनशनम्। बृह. २१५ अ। परिज्ञादिवसचरिमप्रत्याख्यानम्। बृह. ११७ आ। परिज्ञानवान्अनशनी। बृह. ५आ। प्रत्याख्यान तपो वा। बृह० १५० । परिज्ञा। आव० ६३७। प्रत्याख्यानम्। व्यव० ११५अ। निशी. १३४ अ। अणासगं। निशी. ३५२ आ। पच्चक्खाणं। निशी० ३०७ आ। पच्च-क्खाणं। निशी. १३३ अ। परिज्ञा-अन्तक्रियालक्षणा सम्यग्विधेया। स्था० ४४५। परि-समन्ताज्ज्ञानं पापपरि-त्यागेन परिज्ञा सामायिकमिति। आव० ३६४। | परिण्णाय-परिज्ञाय-परिज्ञयाज्ञात्वा। भग० १००। परिज्ञातं-प्रत्याख्यातम्। आचा०६६। परिज्ञातः मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [201] "आगम-सागर-कोषः" [३]

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