Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 54
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३) [Type text] २५१ स्थलं-धुल्युच्छ्रयरूपम्। भग० ३०७ थालीपागो-स्थालीपाकः। जीवा० २८१। थलचर-स्थलचरः मनुष्यादिकः। दशवै०५५। थालीपागसुद्ध-स्थालीपाकशुद्धं स्थाल्यां उखायां पाको थलपट्टणं-थलेण जस्सभंडं आगच्छति। निशी. ७०आ। यस्य तत्स्थालीपाकं, अन्यत्र हि पक्वमपक्वं वा न आनंदपुराति। निशी० २२९ । स्थलपत्तनं-यत्र तथाविधं स्या-दितीदं विशेषणं, शुद्धं-भक्तदोषवर्जितं, स्थलपथेन भाण्डानामागमस्तद्, द्वितीयं पत्तनम्। ततःकर्मधारयः स्थालीपाकेन वा शुद्धम्। भग० ३२६। प्रश्न०३८ स्था० ११७ थवयं-स्थलजं कोरण्टकादि। जीवा० १३६| थालीसंठितो-स्थालीसंस्थितः- आवलिकाबाह्यस्य षष्ठं विचिकिलादि। जम्बू. ३९० संस्थानं, उषा संस्थितः। जीवा० १०४। थलयरं-स्थलचरजं पुदगलविशेषः। आव०८५४। थावग-स्थापकः विकल्पभेदः। दशवै० ५७) थलयर-स्थले चरन्तीति स्थलचराः। प्रज्ञा० ४३। थावच्चस्ता-बारवइवणिया। निशी. १०४ आ। थलाई-स्थलानि तटभूमयः। जम्बू. १७१| थावच्चा-द्वारवत्यां गाथापत्ती। ज्ञाता० १०० थली-देवद्रोणी। नि०७५आ। निशी० १४३ आ। बृह. थावच्चापुत्ते-थावच्चापुत्रः। अनुत्त० ३। द्वारवत्यां १६५ अ। स्थलिका-देवद्रोणी। बृह. ९१ अ, १३० आ। सार्थवाह-पुत्रः। ज्ञाता० १०० अनुत्त० ३। थवइय-स्तबकवान्। ज्ञाता०५ औप०७। स्तबकितं | थावते-स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् सजातपुष्पस्तबकम्। भग० ३७ समर्थ-यति, यथा परिव्राजकधूर्ते लोकमध्यभागे दत्तं थवइयाओ-स्तबकिताः सञ्जातपुष्पस्तवकाः। जम्बू० बहफलं भवति तञ्चाहमेव जानामीति मायया प्रतिग्राममन्यान्यं लोकमध्यं प्ररूपयति सति थवईरयणे-स्थपतिरत्नं वर्धकिरत्नम्। जम्बू. २१० तन्निग्रहाय कश्चित् श्रावको लोकमध्यस्यैक-त्वात् थाइणि-स्थायिणि प्रतिवर्षप्रसविनी वडया। बृह० २३६) कथं बहुषु ग्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंविधोपपत्त्या थाणइल्लग-प्राहरिकः। आव०६९०| त्वद्दर्शितो भो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष थाणइल्ला-आरक्षकाः। निशी. ११४ आ। स्थापितवा-निति स्थापकः। स्था० २५४। थाणयं-स्थानम्। आव. ९० थावरं- स्थावरं अप्रतिहारिकम्। बृह. २४४ आ। स्थावरं च थाणु-स्थाणुः। जीवा० २८२। यद्भवति न परकीयोपस्करवद्याचितं थामवं-स्थामवान् बलवान् शीतातपादिसहनं प्रति कतिपयदिनस्थायि। ओघ. २१११ सामर्थ्य-वान्। उत्त०६५, ११० थावरा-उष्णादयभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः थामो- प्राणः। ओघ. १८९। सन्त-स्तितष्ठन्तीत्येवं शीलाः स्थावराः पृथिव्यादयः। थारुकिणिया-थारुकिनिकाः। जम्बू० १०१| जीवा०९| थाल-स्थालः। जीवा० २३४, २७६। जम्बू०४१० थालः। थासग-स्थासकाः-दर्पणाकारा अश्वालङ्काराः। जम्बू. जम्बू० १०१। स्थालं-अन्तःपरिधिरूपम्। जम्बू० २०४। २६५। स्थासकाः-दर्पणाकारा अश्वालङ्कारविशेषः। थालइ- गृहितभाण्डाः । औप० ९०। भग० ४१९। जम्बू. २३५ स्थासकः-आदर्शकाकारः। औप०७०| थालगं-स्थालकं कोशकादि। सत्र. ३२४१ स्थासकः-दर्पणः। विपा०४७। स्थासकः-दर्पणाकार थालपाणए-स्थालं त्र तत्पानकमिव दाहोपशमहेत्त्वात् आभरणविशेषः। जम्बू० ५३० स्थालपानकम्। भग०६८० थासय-स्थासकः दर्पणकृतिः स्फुरकादिषु भवति। थालिपागाइ-स्थालीपाकः। जम्बू० १२३। अनुत्त०५१ थाली-स्थाली। आव. २००| उषा। जीवा० १०५। उखा। थाह-जत्थ णासिया ण बुड्डति तं थाह। निशी. ७८1 आ। भग. ३२६। स्थाली पिठरी। सर्य.२९३ स्थाली-बृहद- स्ताघं-अर्वाक् नासिकाया यत् जलं। यत्र मासिका न भाजनविशेषः। ओघ० १६९। बुड्डति तत् स्थाघम्। बृह. १६१ अ। स्ताघः। आव. मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [54] "आगम-सागर-कोषः" [३]

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