Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 20
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अक्खीणमहाणसियं-अक्षीणमहानसिकम। आव. २९१। २९४१ स्था० ३३२ अकिरियावाई-अक्रियावादिन क्रिया-अस्तीतिरूपा अक्खीणमहाणसी- अक्षीणमहानसी, सकल-पदार्थसार्थव्यापिनी सैवायथावस्तुविषयतया अटितभिक्षालब्ध-भोजनवान। औप० २८१ कुत्सिता, अक्रिया नञः कुत्सार्थत्वात्तामक्रियां अक्खुडिय-आस्फालितः, स्खलितः। आव० ५५५ वदन्तीत्येवंशीलाः अक्रियावादिनः, यथावस्थितं हि अक्खुंदड- चक्खिउं चुंचति। निशी० १२४ अ। वस्त्वनेकान्तात्मकं तन्नास्त्येकान्तात्मकमेव अक्खुन्नइ-आक्षुणत्ति, विलिखति। बृह० ६६अ। चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त इत्यर्थः। स्था० ४२५१ अक्खुन्ना-अमर्दिताः। बृह० ७८ अ। नियतकृष्णपाक्षिकाः। दशाश्र. १६| अक्खे-अक्षः, शकटावयवविशेषः। भग० २७७ सम. ९८१ | अक्षः-बिभीतकः। प्रज्ञा०३१| आख्या-प्रसिद्धः। जम्बू०६२। अक्षरः- घोलना स्वरविशेषः। जीवा० १९५१ अक्खेइ-षण्णवतिरङ्गलानि एकोऽक्षः। जम्बू. ९४१ अक्षरकोविदपरिषद्-(विदवत्परिषद)। आचा० १४६। अक्खेव-आक्षेपः, प्रश्नः। भग० ११४। आव० ९७। उत्त. | अक्षरश्रुतम्- ज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि ५२४ तदा-वरणक्षयोपशमो वा। आव० २४ अक्खेवणि-आक्षेपणी, धर्मकथायाः प्रथमो भेदः अक्षि- नेत्रम्। आचा० ३७ आक्षिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन इति। | अक्खुवंजण-अक्षोपाङ्गन्यायः- चक्रोजनं। दशवै. दशवै०११०| धर्मकथाभेदः। आचा० १४५ १८० अक्खेवणी-आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताs- अखंड-अखण्डः, सम्पूर्णावयवः। आव० २३९। अखण्डम्नयेत्याक्षेपणी। स्था० २१०। आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं अस्फुटितम्। दशवै० १९५१ प्रत्याकृष्यते श्रोता यकाभिरिति। औप०४६। अखमे-अक्षमा, परकृतापराधस्यासहनं। भग० ५७२। अक्खेवी-आक्षेपी, आक्षिपति वशीकरणादिना यः स ततो | अखित्तं-इन्द्रकीलादियुतं ग्रामादि। बृह. ३६अ। मुष्णाति सः। प्रश्न० ४६। अखण्णा- अमर्दिता। निशी० ३३५ अ। अक्खेवो-आक्षेपः, आक्षेपणम्, आशङ्का। आव० ३७७।। अखेत्तं-छिण्णमंडवं। निशी० ३४१ आ। पूर्वपक्षः। बृह. १२५ | परद्रव्यस्य, अधर्मद्वारस्यैको- | सचित्तपृथ्व्यादिमदस्थण्डिलम्। बृह. १४० आ। नविंशतितमं नाम। प्रश्न.४३ अगंथिमा- कयलआ मरहट्ठविसये फलाण अक्खो-अक्षः, युतपासकः। आव० ५०२। फलविशेषः, कयलक्कपमाणाओ पेण्डीओ एक्कंमि डाले बहक्कीओ अनुत्त०६। भवन्ति ताणि फलाणि खंडाखडीकयाणि। निशी० ४९ अक्खोडगा- क्रियाविशेषः। निशी. १८२ अ। । अक्खोडभंगपरिहरणा-आस्कोटकभङ्गपरिहरणा, अगंधण-अगन्धनः, मानी सर्पः। दशवै० ३७) आस्फोट-कानां यो भङ्गस्तस्य प्रतिलेखनादिविधि- अगंधणा-अगन्धना, सर्पजातिविशेषः। उत्त०४९५) विराधनापरिहरणा। आव. १५२ अगंधि-दुर्गन्धि। बृह० ९९ अ। अक्खोडयं-अक्षोटकम्, अक्षोडवृक्षफलम्। प्रज्ञा० ३६४। अगइचरमे-अगतिचरमः, न गतिचरमः। प्रज्ञा. २४५ अक्खोभे- अक्षोभः, अन्तकृद्दशानां अगड-कूपः। बृह. १०९आ। अवटः खड्डा आव० ६९१। प्रथमवर्गस्याष्टमाध्ययनम्। अन्त०१। अन्तकृद्दशानां आव. २०४। कूपः। भग० २३८। जम्बू. १२३। दवितीयवर्गस्य प्रथमाध्ययनम्। अन्त०३। अगडदत्तो-अगडदत्तः, अमोघरथरथिकपुत्रः। उत्त० अक्खोलं- फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८१ २१३। रक्षकविशेषः। व्यव० १७० आ। अक्खोवंग-चक्रोंजनं। गणि | अगडमहेसु-कूपमहेषु। आचा० ३२८। अक्खोवंजण-अक्षोपाञ्जनम्, शकटधूर्मक्षणम्। भगः | अगडाति-अवटा-कूपाः। स्था० ८६। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [20] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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