Book Title: Agam Sagar Kosh Part 01
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 18
________________ । [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-१) [Type text] अकुत्कुचः, कुन्थ्वादिविराधनाभयात्कर्मबन्धहेतुत्वेन | अक्कमइ-आक्रामति, अवष्टभ्नाति। उत्त० १३४। कुत्सितं हस्तपादादिभिरस्पन्दमानः। उत्त० १०९। अक्कमित्ता-हत्वा। भग०६३७। आक्रम्य-मिश्रीकृत्य। अकौत्कुचः- मुखविकारादिरहितः। आचा० ३१५ ओघ. १९५४ अकुक्कुयं- अकुक्कुचं, अस्पन्दमानम्। उत्त० ५८१ अक्किट्ठा-अक्लिष्टाः, स्वशरीरोत्थक्लेशवर्जिताः। अकुक्कुय-कुत्सितं कूजति–पीडितः सन्नाक्रन्दति जम्बू०१२६| कुकूजो न तथेत्यकुकूजः। उत्त० ४८६) अक्किट्ठो-अक्लिष्टः, स्वशरीरोत्थक्लेशरहितः। जीवा. अकुचो-निश्चलः। निशी. १६७ अ। ૨૮૪. अकुहिले-अणिहे। दशवै० १५११ अक्कोडियाओ- प्रवेशिताः। बृह. ३० आ। अकुट्ठो- (आक्रुष्टः)। जारजातोतिवयणेण। निशी. २९६ अक्कोस-आक्रोशः, अनिष्टवचनम्, द्वादशः परीषहः। आव०६५६। यकारादिभिः। दशवे. २६७। दुर्वचन अकुसल-अकुशलः, अनिपुणः स्थूलमतिश्चरकादिः। । परीषहः। सम०४१। दशवै०६४१ अक्कोसेज्ज-आक्रोशेत्, तिरस्कुर्यात्। उत्त० १११। अकुसलो- अप्रधानः बन्धाय संसाराय। निशी. २५ | अक्कोसो- आक्रोशः, असभ्यभाषणम्। उत्त०६२। आक्रोअकुहए- कुहगं-इंदजालादी तं न करेइत्ति वाइत्तादि वा। | शनं, असभ्यभाषात्मकः। उत्त० ८३। म्रियस्वेत्यादि दशवै० १४० वचनम्। प्रश्न. १६० अकेल्ला-राजस्तोत्रपाठकाः। निशी. २७७ अ। अक्खं-अक्षम्, चन्दनकम्। आव०७६७। अक्षाटकम्। अकोवणिज्जो-अकप्पो अदूसणिज्जोत्ति वृत्तं भवति। आव० ३४४। वराटकाः। आव०८८1 आत्मा। स्था०४९। नि १३९ । इन्द्रियम्। प्रज्ञा० ८८ अश्रीते नवनीतादिकामित्यक्षोधूः। अकोसापंतं-विकाशीभवत् औप० २०९ उत्त० २४७ अकोहणे-अक्रोधनः, अपराधिन्यनपराधिनि वा न अक्ख-अक्षः, अक्षोपाङ्गदानवच्चेति साधोरुपमानम्। कथंचित् क्रुध्यति। उत्त० ३४५४ दशवै. १८ जीवः इन्द्रियं वा। भग० २२२१ अकोहे-अक्रोधः, स्वल्पक्रोधण। जम्बू. १४८ संखाणियप्पदोसो अण्णतरं इंदियजायं वा। निशी० २५५ अक्कंडे- अकाले (आतु०) अ। अक्षं चक्रनाभिक्षेप्यकाष्ठम्। जम्बू. १७१। अक्कंता-आक्रान्ता। आव०५०४१ अवष्टब्धा। आचा० अक्खए-अक्षयम्, अविनाशी। भग० ११९। सदाभावेन, अवयविद्रव्यापेक्षया अक्षतो वा परिपूर्णत्वात्। स्था० अक्कंतितो-अडाडाए बला हरंतो। निशी० ३८ आ। ३३३ अक्कंतिया-न कुतोऽपि बिभ्यति ये स्तेना। ब्रह. ११८ | अक्खओदए- अक्षयोदकः, अक्षयसम्यग्ज्ञानोदकः। अक्कंते-अचित्तस्य प्रथमो भेदः, ओघ० १३३। आक्रान्ते- | अक्षतो-दयः, अक्षत उदयः प्रादुर्भावो वा। उत्त० ३५३। पादादिना भूतलादौ यो भवति सः। स्था० ३३६| अक्षणिक-(अक्खणिए), व्यग्रः। ओघ. १७५) अक्कंतो-आक्रान्तः, आव. २२७। अक्खणिओ- अक्षणिकः, निर्व्यापारः। दशवै० ५८ अक्कंदणं-आक्रन्दम् महता शब्देन विरवणम्। आव. अक्खति-आख्याति (गणि०)। अक्खपडिय-अक्षपतितः, अक्षपातनिका। आव०४५३। अक्क- (अर्कतुलम्) निशी० ६१ अ। अक्खपाडओ- अक्षपाटकः। जीवा० २५७। चत्रस्राकारः अक्कबोंदी-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३३ पाटकः। जीवा. २२८१ अक्कबोंदीणं-वल्लीविशेषः भग०८०३। अक्खपाद-हेतुसत्थं। निशी० ३० आ। अक्कम-आक्रमः, तदुच्छेद इतियावत्। आव०६० | अक्खमाते-अक्षमाय-अयुक्तत्वाय। स्था० १४९। अनुअक्कमणं-आक्रमणं-पादेन पीडनं। आव. ५७३। चितत्वाय असमर्थत्वाय वा। स्था० २९२। असङ्गतत्वाय २५७ اواو मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [18] “आगम-सागर-कोषः" [१]

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