Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-8 (342) 27 लिए वह आहार बनाया गया है, उनको होनेवाले अंतराय का दोष लगता है तथा उनके लिए बनाए गए आहार को लेने के लिए जैन साधु को जाते हुए देखकर उनके मन में द्वेष भी जग सकता है। इसलिए जैन साधु को ऐसा आहार भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। I सूत्र // 8 // // 42 // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, बहवे समणा माहणा अतिहिं किविण-वणीमए समुद्दिस्स जाव चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा, अपुरिसंतरकडं वा अबहिया-नीहडं अणत्तढियं अपरिभुत्तं अणासेवियं अफासुयं अणेसणिजं जाव नो पडिग्गाहिजा / अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडं बहिया नीहडं अत्तट्टियं परिभुत्तं आसेवियं फासुयं एसणिज्जं जाव पडिग्गाहिज्जा || 342 // II संस्कृत-छाया : . सः भिक्षुः वा भिक्षुणी वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुनः जानीयात् अशनं वा, बहून् श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथि कृपण-वणीपकान् समुद्दिश्य यावत् ददाति, तं तथा प्रकारं अशनं वा, अपुरुषान्तरकृतं वा अबहिःनिर्गतं वा अनात्मस्थितं वा अपरिभुक्तं वा अनासेवितं वा अप्रासुकं अनेषणीयं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतं बहिः निर्गतं आत्मस्थितं परिभुक्तं आसेवितं प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिगृह्णीयात् || 342 // III सूत्रार्थ : * गृहस्थ कुल में प्रवेश करने पर साधु-साध्वी इस प्रकार जाने कि- अशनादिक चतुर्विध आहार जो कि शाक्यादिभिक्षु, ब्राह्मण अतिथि दीन और भिखारियों के निमित्त तैयार किया गया हो और दाता उसे देवे तो इस प्रकार के अशनादि आहार को जो कि- अन्य पुरुष कृत न हो, घर से बाहर न निकाला गया हो, अपना अधिकृत न हो, उस में से खाया या आसेवन न किया गया हो तथा अप्रासुक और अनेषणीय हो, तो साधु ऐसा आहार भी ग्रहण न करे। यदि साधु इस प्रकार जाने कि- यह आहार आदि पदार्थ अन्य कृत है, घर से बाहर ले जाया गया है, अपना अधिकृत है तथा खाया और भोगा हुआ है एवं प्रासुक और एषणीय है तो ऐसे आहार को साधु ग्रहण करले / IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादिके लिये गृहस्थोंके घरमें प्रवेश करके यह देखे : कि- यह आहारादि, बहुत सारे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण या वनीपकों के लिये अस एवं