Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-3 (447) 255 अह पुणेवं जाणिज्जा चत्तारि मासा० कप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव असंताणगा, बहवे जत्थ समण उवागमिस्संति, सेवं नच्चा तओ संजयामेव० दूइज्जिज्जा // 447 // II संस्कृत-छाया : अथ पुनः एवं जानीयात्- चत्वारः मासाः वर्षावासानां व्यतिक्रान्ताः, हेमन्तानां च पञ्चदशरात्रिकल्प: पर्युषितः, अन्तराले तस्य मार्गे बहुप्राणिनः यावत् ससन्तानकाः, न यत्र बहवः यावत् उपागमिष्यन्ति, सः एवं ज्ञात्वा न ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // अथ पुन: एवं जानीयात् चत्वारः मासा:० कल्प: पर्युषितः, अन्तराले तस्य मार्गे अल्पाण्डाः यावत् असंतानका: बहवः यत्र श्रमण उपागमिष्यन्ति, सः एवं ज्ञात्वा ततः संयतः एव० गच्छेत् // 447 // III सूत्रार्थ : वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो जाने पर साधु को अवश्य विहार कर देना चाहिए, यह मुनि का उत्सर्गमार्ग है। यदि कार्तिक मास में पुनः वर्षा हो जाए और उसके कारण मार्ग आवागमन के योग्य न रहे और वहां पर शाक्यादि भिक्षु नहीं आए हों तो मुनि को चतुर्मास के पश्चात् वहां 15 दिन और रहना कल्पता है। यदि 15 दिन के पश्चात् मार्ग ठीक हो गया हो, अन्यमत के भिक्षु भी आने लगे हों तो मुनि यामानुयाम विहार कर सकता है इस तरह वर्षा के कारण मुनि कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के पश्चात् मार्गशीर्षकृष्णा अमावस पर्यन्त ठहर सकता है। IV टीका-अनुवाद : अब वह साधु या साध्वीजी म. ऐसा जाने कि- वर्षाकाल के चार महिने बीत चुके है अर्थात् कार्तिक पूर्णिमा बीत चुकी है, वहां उत्सर्ग से यदि वृष्टि-बरसात न हो तो पडवे के दिन हि विहार करके अन्य गांव में जाकर पारणां करें, और यदि वृष्टि-बरसात हो, तो हेमंत . ऋतु के पंद्रह (15) दिन बीतने पर विहार करें... और वहां यदि अंतराल-मार्ग में क्षुद्र जंतुओं के अंडे हो या मकडी के जाले हो, और बहोत सारे श्रमण ब्राह्मण आदि आये न हो या आनेवाले न हो, तो संपूर्ण मागसर महिना वहां हि स्थिरता करें... उसके बाद कैसी भी स्थिति हो तो भी वहां न रहें... इसी प्रकार इससे विपरीत सत्र का अर्थ भी विपरीत प्रकार से जानीयेगा... .. अब मार्ग-यतना के विषय में कहतें हैं...