Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री. राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 3 // भावना... दूसरी चूलिका पूर्ण हुई अब तीसरी चूलिका का प्रारंभ करतें हैं यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- यहां इस आचारांग सूत्र में आरंभ से ही श्री वर्धमानस्वामीजी ने जो कुछ अर्थ कहा था वह प्रस्तुत किया... अब उपकारी ऐसे उन श्री वर्धमान स्वामीजी के संबंध में कुछ संक्षिप्त परिचय तथा पांच महाव्रत युक्त ऐसे साधु एवं साध्वीजी म. ही आहारादि पिंड एवं शय्या वस्त्र-पात्र-वसति आदि का ग्रहण करे... अन्य नही... अतः उन महाव्रतों के परिपालन के लिये भावना कहनी चाहिये... इस संबंध से यहां यह तीसरी चूलिका आई है... इस भावना नाम की तीसरी चूलिका के चार अनुयोग द्वार हैं उनमें उपक्रम के अंतर्गत यह अर्थाधिकार है कि- अप्रशस्त भावना के त्याग के साथ प्रशस्त भावना कहनी चाहिये... नाम-निष्पन्न निक्षेप में भावना यह नाम है... और इस भावना के नामादि चार निक्षेप होतें हैं... उनमें नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है अतः द्रव्य निक्षेप का स्वरुप कहतें हैं... नि. 330 नो आगम से तद्व्यरिक्त द्रव्य भावना याने गंधांग स्वरुप जाइके पुष्पों से तिलादि द्रव्यों में की जानेवाली वासना वह भावना है, तथा जो शीत से भावित है वह शीतसहिष्णु और उष्ण से भावित है वह उष्णसहिष्ण... होता है... तथा आदि पद से-व्यायाम से अभ्यस्त देह है वह व्यायामसहिष्णु- इत्यादि अन्य द्रव्य से या द्रव्य की जो भावना वह द्रव्य भावना... तथा भाव विषयक जो भावना वह भाव-भावना... यह प्रशस्त एवं अप्रशस्त भेद से दो प्रकार की है... उनमें अप्रशस्त भाव-भावना इस प्रकार जानना चाहिए... नि. 338 जैसे कि- कोई मनुष्य प्राणि-वधादि कार्यों में जब सर्व प्रथम प्रवृत्त होता है तब साशंक होता है... और बाद में बार बार प्राणिवधादि करने पर वह निःशंक होकर पापाचरण करता है... अन्य अन्यत्र भी कहा है कि- कोई भी मनुष्य सर्व प्रथम जीव हिंसा करता है तब उसे जीव के प्रति दया-करुणा होती है और वह खुद अपराध कर रहा है ऐसा महसूस करता है, और दुबारा जब जीवहिंसा करता है तब वह दया-करुणा भूल जाता है, और तीसरी बार वह निःशंक