Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 48 2-1-1-3-3 (350) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पास आउंगी इत्यादि बातों से उस साधु को बांधकर कहे कि- गांव के पास कोई एकांत (गुप्त) जगह पर मैथुन-क्रीडा करेंगे... यहां सारांश यह है कि- कोई स्त्री एकांत में साधु के पास मैथुनक्रीडा की प्रार्थना करे तब वह एकाकी (अकेला) साधु उस स्त्री को अनुसरे... किंतु यह अकरणीय है ऐसा जानकर साधु संखडि में न जाए, क्योंकि- यह कर्मबंध के स्थान हैं प्रतिक्षण कर्मो का अधिक-अधिक संचय होता है... अतः इस प्रकार के होनेवाले प्रत्यपाय याने उपद्रवों को देखकर के श्रमण नियन्थ साधु तथाप्रकार के पुरःसंखडि या पश्चात् संखडि स्वरूप संखडि में, संखडि में जाने के विचार भी न करें, और गमन भी न करें... V सूत्रसार : दूसरा दोष यह है कि संखडि में जाने पर वहां आए हुए अन्य मत के भिक्षुओं से उसका घनिष्ट परिचय होगा और उससे उसकी श्रद्धा में विपरीतता आ सकती है, और उनके संसर्ग से वह मध आदि पदार्थों का सेवन कर सकता है और उनके कारण अपने आत्म भान को भूलकर संयम के विपरीत आचरण का सेवन भी कर सकता है। शराब के नशे में उन्मत्त होकर वह नृत्य भी कर सकता है और किसी उन्मत्त स्त्री के द्वारा भोग का निमन्त्रण पाकर उस में फिसल भी सकता है। इस तरह संखडि में जाकर वह अपने संयम का सर्वथा नाश करके जन्म-मरण के अनन्त प्रवाह में प्रवहमान हो सकता है। इस तरह संखडि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक चिन्तन एवं आध्यात्मिक साधना आदि सबका नाश करने वाली है। इस लिए साधु को संखडि के स्थान की ओर कभी भी नहीं जाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं। सूत्र // 3 // | 350 // से भिक्खू वा अण्णयरिं संखडिं सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं धुवा संखडी नो संचाएइ, तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा / से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारिज्जा || 350 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा अन्यतरां सलडिं श्रुत्वा निशम्य सम्प्रधावति उत्सुकभूतेन आत्मना ध्रुवा सङ्खडि: न शक्नोति, तत्र इतरेतरैः कुलैः सामुदानिकं एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं परिगृह्य आहारं आहारयेत्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सः तत्र कालेन अनुप्रविश्य तत्र इतरेतरैः कुलैः सामुदानिकं एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं प्रतिगृह्य आहारं