Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-2-3 (485) 365 समभिकाङ्क्षसि मम वस्त्रं धारयितुं वा परिहत्तुं वा ? स्थिरं वा सत् न परिच्छिन्द्य परिष्ठापयेत्, यथा मम इदं वस्त्रं पापकं परः मन्यते, परं च अदत्तहारी प्रतिपथि प्रेक्ष्य तस्य वस्रस्य निदानाय न तेभ्यः भीत: उन्मार्गेण गच्छेत्, यावत् अल्पोत्सुकः ततः संयत: एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत्। स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य अरण्यं स्यात्, सः यत् पुनः अरण्यं जानीयात्, अस्मिन् खलु अरण्ये बहवः आमोषका: वख-प्रतिज्ञया संपिण्डिताः गच्छेयुः, न तेभ्यः भीत: उन्मार्गेण गच्छेत् यावत् ग्रामा० गच्छेत् / सः भिक्षुः० गच्छन् अन्तरा तस्य आमोषकाः प्रत्यागच्छेयुः, ते आमोषकाः एवं वदेयु:- हे आयुष्मन् श्रमण ! आहर इदं वस्त्रं देहि, निक्षिप, यथा ईर्यायां नानात्वं वस्त्र-प्रतिज्ञया, एतत् खलु० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 485 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु और साध्वी सुन्दरवर्णवाले वस्त्रों को विवर्ण-विगत वर्ण न करे तथा विवर्ण को वर्ण युक्त न करे। तथा मुझे अन्य सुन्दर वस्त्र मिल जाएगा ऐसा विचार कर के अपना पुराना वस्त्र किसी और को न दे। और न किसी से उधारा वस्त्र लेवे एवं अपने वस्त्र की परस्पर अदला-बदली भी न करे। तथा अन्य श्रमण के पास आकर इस प्रकार भी न कहे कि आयुष्मन् ! श्रमण ! तुम मेरे वस्त्र को ले लो, मेरे इस वस्त्र को जनता अच्छा नहीं समझती है तथैव उस दृढ वस्त्र को फाड करके फैंके भी नहीं तथा मार्ग में आते हए चोरों को देख कर उस वस्त्र की रक्षा के लिए चोरों से डरता हुआ उन्मार्ग से गमन न करे, किन्तु रागद्वेष से रहित होकर साधु यामानुयाम विहार करे-विचरे। यदि कभी विहार करते हुए मार्ग में अटवी आ जाए तो उसको उल्लंघन करते समय यदि बहुत से चोर एकत्र होकर सामने आ जाए तब भी उनसे डरता हुआ उन्मार्ग में न जाए। यदि वे चोर कहे कि आयुष्मन श्रमण ! यह वस्त्र उतार कर हमें दे दो, यहां रख दो ? तब साधु वस्त्र को भूमि पर रख दे, किन्तु उनके हाथ में न दे और उनसे करूणा पूर्वक उसकी याचना भी न करे। यदि याचना करनी हो तो धर्मोपदेश के द्वारा करे। यदि वे वस्त्र न दें तो नगरादि में जाकर उनके संबन्ध में किसी से कुछ न कहे। यही वस्खैषणा विषयक साधु और साध्वी का सम्पूर्ण आचार है, अतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा पांच समितियों से युक्त मुनि विवेकपूर्वक आत्म-साधना में संलग्न रहे। इस प्रकार में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. चौर आदि के भय से अच्छे वस्त्रों को गंदे (मलीन) न करे... उत्सर्ग नियम से ऐसे वस्त्रों का स्वीकार हि न करें... अथवा तो स्वीकार कीये हुए उन वस्त्रों