Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-2 (422) 217 वा पविसमाणे वा० पुरा हत्थेण वा पच्छा पाएण वा तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा केवली बूया-आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए वा दंडए वा लट्ठिया वा मिसिया वा नालिया वा चेलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बुद्धे दुण्णिक्खित्ते अनिकंपे चलाचले भिक्खू य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा पयलिज्जमाणे वा, से तत्थ पयलमाणे वा० हत्थं वा० लूसिज्ज वा पाणाणि वा० जाव ववरोविज्ज वा, अह भिक्खूणं पुव्वोवढं जं तह० उवस्सए पुरा हत्थेण निक्ख० वा पच्छा पाएणं तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा // 422 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात्- शुद्धिकाः क्षुद्रद्वाराः नीचा: सन्निरुद्धाः भवन्ति, तथाप्रका० उपाश्रये रात्रौ वा विकाले वा निष्क्रममाणेन वा प्रविशता वा पुरा हस्तेन वा पश्चात् पादेन वा तत: संयतः एव निष्क्रामेत् वा केवली ब्रूयात्आदानमेतत्, ये तत्र श्रमणानां वा ब्रह्मणानां वा (श्रमणेभ्य: वा ब्राह्मणेभ्य: वा) छत्रक वा मात्रकं वा दण्डः वा लष्टिः वा मिश्रिका वा नालिका वा चेलं वा चिलिमिली (यवनिका) वा चर्म वा चर्मकोश: वा चमच्छेदनक: वा दुर्बद्धः दुर्णिक्षिप्त: अनिकम्प: चलाचलः, भिक्षुः च रात्रौ वा विकाले वा निष्क्रममाण: वा प्रविशन् वा, प्रचलेत् वा प्रपतेत् वा, सः तत्र प्रचलन् वा प्रपतन् वा हस्तं वा० लुष्यात् वा प्राणिनः वा यावत् व्यवरोपयेत् वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् तथा० उपाश्रये पुरा हस्तेन० निष्क्रम० वा पश्चात् पादेन, ततः संयतः एव निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा // 422 // III सूत्रार्थ : वह साधु अथवा साध्वी फिर उपाश्रय को जाने, जैसे कि- जो उपाश्रय छोटा है अथवा छोटे द्वार वाला है, तथा नीचा है और चरक आदि भिक्षुओं से भरा हुआ है, इस प्रकार के उपाश्रय में यदि साधु को ठहरना पडे तो वह रात्रि में और विकाल में, भीतर से बाहर निकलता हुआ या बाहर से भीतर प्रवेश करता हुआ, प्रथम हाथ से देखकर पीछे पैर रखे। इस प्रकार साधु यत्नापूर्वक निकले या प्रवेश करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि- यह कर्म बन्धन का कारण है, क्योंकि वहां पर जो शाक्यादि श्रमणों तथा ब्राह्मणों के छत्र, अमत्र (भाजन विशेष) मात्रक, दंड, यष्टी, योगासन, नलिका (दण्ड विशेष) वस्त्र, यवनिका (मच्छरदानी) मृगचर्म, मृगचर्मकोष, चर्मछदन-उपकरण विशेष-जो कि अच्छी तरह से बन्धे हुए और ढंग से रखे हुए नहीं है, कुछ हिलते हैं और कुछ अधिक चंचल हैं उनको आघात पहुंचने का डर है, क्योंकि रात्रि में और विकाल में अन्दर से बाहर और बाहर से अन्दर निकलता या प्रवेश करता हुआ