Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-5-1 (505) 443 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 5 सप्तैककः - 5 . 卐 रूप... // अब पांचवी रूप नाम की सप्तैकक कहतें हैं... चौथी सप्तैकक के बाद पांचवी सप्तैकक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर अभिसंबंध इस प्रकार है... चौथे अध्ययन में श्रवणेंद्रिय के विषय में राग एवं द्वेष न करने का विधान किया, अब इस पांचवे अध्यन में चक्षुरिंद्रिय के विषय में राग एवं द्वेष न करने का विधान करतें हैं... इस संबंध से आये हुए इस अध्ययन का नाम है... "रूप" अतः इस रूप पद के नाम-स्थापना द्रव्य एवं भाव निक्षेप होतें हैं. उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... अब द्रव्य एवं भाव निक्षेप का स्वरुप नियुक्ति की गाथा से कहतें नो आगम से तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप रूप परिमंडल आदि पांच संस्थान स्वरुप है... तथा भाव रूप निक्षेप के दो भेद है... 1. वर्ण से 2. स्वभाव से... उनमें वर्ण से भावरूपसंपूर्ण पांच वर्ण... तथा स्वभाव से भावरूप- आत्मा में रहे हुए क्रोधादि के कारण से भकूटी, ललाट एवं आंखो के विकार के साथ निष्ठुर कठोर वचन आदि का उच्चारण और इससे विपरीत प्रकार का रूप आत्मा की प्रसन्नता में रहता है... अन्यत्र भी कहा है कि- रुष्ट- क्रोधवाले मनुष्य की दृष्टि कठोर होती है, और प्रसन्न चित्तवाले की दृष्टि सफेद कमल की तरह उज्जवल होती है... तथा दुःखी मनुष्य की दृष्टि म्लान-ग्लानि से भरपूर होती है... और अन्य स्थान में जाने की इच्छावाले की दृष्टि उत्सुक याने उतावली होती है... अब सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना चाहिये... और वह सूत्र इस प्रकार है.. I सूत्र // 1 // // 505 // से भि० अहावेगइयाई रुवाइं पासइ, तं० गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरीमाणि वा संघाइमाणि वा कट्ठकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा मणिकम्माणि वा दंतकम्माणि वा पत्तछिज्जकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अण्णयराइं तह० विरूवरूवाइं चक्खुदंसणपडियाए नो अभिसंधारिज्ज गमणाए, एवं नायव्वं जहा सद्दपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रुवपडिमावि // 505 //