Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-3 (477) 341 कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 477 // से भि० से जं० अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं जहा पिंडेसणाए भाणियव्वं / एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ बहवे समणमाहण० तहेव पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसणाए // 477 // II. संस्कृत-छाया : स: भि० सः यत्० अस्वप्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं समुद्दिश्य प्राणिनः, यथा पिण्डैषणायां (तथा) भणितव्यम्, एवं बहवः साधर्मिका: एकां साधर्मिकां, बहवः साधर्मिण्यः बहून् श्रमण-ब्राह्मण तथैव पुरुषान्तरकृता यथा पिण्डैषणायां // 477 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी को वस्त्र के विषय में यह जानना चाहिए कि- जिसके पास धन नहीं है ऐसा गृहस्थ कोइ साधु के निर्देश से एक या अनेक साधु या साध्वियों के लिए प्राण भूत आदि की हिंसा करके वस्त्र तैयार करे तो साधु-साध्वी को वह वस्त्र नहीं लेना चाहिए। यदि वह वस्त्र बहुत से शाक्य आदि श्रमण-ब्राह्मणों के लिए तैयार किया गया है और वह पुरुषान्तर हो गया हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। यह सारा प्रकरण सदोष एवं निर्दोष के विषय में पिण्डैषणा के प्रकरण की तरह समझना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : यह दोनों सूत्र आधाकर्मिक-उद्देश से पिंडैषणा के सूत्रों की तरह जानीयेगा... अब उत्तरगुणों के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आधाकर्म आदि दोष युक्त वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति ने एक या अनेक साधुओं या एक और अनेक साध्वियों को उद्देश्य करके वस्त्र बनाया हो तो साधु-साध्वी को वह वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि वह वस्त्र किसी शाक्य आदि श्रमण या ब्राह्मणों के लिए बनाया गया हो, परन्तु पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो वह वस्त्र भी स्वीकर न करे। किंतु यदि वह वस्त्र पुरुषान्तर कृत हो गया है तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। वस्त्र ग्रहण करने या न करने की सारी विधि आहार ग्रहण करने की विधि की तरह ही है। अतः सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया