Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 360 2-1-5-2-1 (483) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन और न रंगे तथा धोए हुए और रंगे हुए वस्त्रों को पहने भी नहीं। किन्तु, अल्प और असार (साधारण) वस्त्रों को धारण करके व्याम आदि में सुख पूर्वक विचरण करे। वस्त्रधारी मुनि का वस्त्र धारण करने सम्बन्धी यह सम्पूर्ण आचार है अर्थात् यही उसका भिक्षुभाव है। आहारादि के लिए जाने वाले संयमनिष्ठ साधु-साध्वी गृहस्थ के घर में जाते समय अपने सभी वस्त्र साथ में लेकर उपाश्रय से निकलें और गृहस्थ के घर में प्रवेश करें। इसी प्रकार वस्ती से बाहर, स्वाध्याय भूमि एवं जंगल आदि जाते समय तथा व्यामानुयाम विहार करते समय भी वे सभी वस्त्र लेकर विचरें। इसी प्रकार थोड़ी या अधिक वर्षा बरसती हुई देखकर साधु वैसा ही आचरण करे जैसा पिडैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है। केवल इतनी ही विशेषता है कि वह अपने सभी वस्त्र साथ लेकर जाए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. परिकर्म याने संस्कार न करता पडे वैसे एषणीय वस्त्रों की याचना करे... और जैसे ग्रहण कीये हो वैसे हि पहनें... किंतु उन वस्त्रों में कुछ भी संस्कार न करें... जैसे कि- ग्रहण कीये हुए उन वस्त्रों को न धोवें... तथा रंगे भी नहि, तथा बकुश भाव से उन धोये एवं रंगे हुए वस्त्रों को न पहनें... यहां सारांश यह है कि- ऐसे अनेषणीय वस्त्रों को ग्रहण न करें... अतः प्रमाणोपेत सफेद वस्त्रों को पहनकर, हि एक गांव से अन्य गांव की और विहार करे... इस स्थिति में साधु को कुछ भी वस्त्रादि छुपाने की आवश्यकता नहि होती इस प्रकार साधु सुख-समाधि से विहार करे... तथा अवमचेलिक याने असार वस्त्रों को धारण करनेवाले उस साधु का यह हि साधुपना है... यह सूत्र जिनकल्पवाले साधुओं के लिये कहा है... तथा वस्त्रधारित्व विशेषण को लेकर गच्छवासी स्थविरकल्पवाले साधुओं के लिये भी यह सूत्र अविरुद्ध याने समुचित हि है और यह बात पिंडैषणा अध्ययन में कहे गये विधान मुताबिक जानीयेगा... किंतु वह जिनकल्पिक साधु सर्व उपधि-उपकरण वस्त्रादि लेकर हि विहार करे... इतना यहां विशेष जानीयेगा... अब प्रातिहारिक से उपहत वस्त्र की विधि कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि आगम में वर्जित विधि के अनुसार साधु को निर्दोष एवं एषणीय वस्त्र जिस रूप में प्राप्त हुआ हो वह उसे उसी रूप में धारण करे। विभूषा की दृष्टि से साधु न तो उस वस्त्र को स्वयं धोए और न रंगे और यदि कोई गृहस्थ उसे धोकर या रंगकर दे तब भी वह उसे स्वीकार न करे। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को विभूषा के लिए वस्त्र को धोना या रंगना नहीं चाहिए। क्योंकि, वह वस्त्र का उपयोग केवल लज्जा ढकने