Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 320 2-1-4-1-4 (469) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के द्वारा हि अंतरिक्ष... इत्यादि प्रकार से बोलें... क्योंकि- यह हि साधु का सच्चा साधुपना है... इति... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि संयमनिष्ठ एवं विवेकशील साधुसाध्वी को सदोष भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे- आकाश, बादल, बिजली, वर्षा आदि को देव कहकर नहीं पुकारना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों में दैवी शक्ति की कल्पना करके उन्हें देवत्व के सिंहासन पर बैठाना यथार्थता से बहुत दूर है। क्यों कि- इसमें असत्यता का अंश रहता है। इस कारण साधु को उन्हें देवत्व के सम्बोधन से न पुकार कर व्यवहार में प्रचलित आकाश, बादल, बिजली या विद्युत आदि शब्दों से ही उनका संबोधन करना चाहिए। इसी तरह साधु-साध्वी को यह भी नहीं कहना चाहिए कि वर्षा हो या न हो, धान्य एवं अन्न उत्पन्न हो या न हो, शीघ्रता से रात्रि व्यतीत होकर सूर्योदय हो या न हो, अमुक राजा विजयी हो या न हो। क्यों कि इस तरह की भाषा बोलने से संयम में अनेक दोष लगते हैं, अतः साधु को ऐसी सदोष भाषा का प्रयोग कभी भी नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'संमुच्छिए वा निवाइए' पाठ का यह अर्थ है- बादल सम्मूर्छित जल बरसाता है। अर्थात् सूर्य की किरणो के ताप से समुद्र, सरिता आदि में स्थित जल बाष्प रूप में ऊपर उठता है और ऊपर ठण्डी हवा आदि के निमित्त से फिर पानी के रूप को प्राप्त करके बादलों के रूप में आकाश में घूमता है और हवा पहाड़ एवं बादलों की पारस्परिक टक्कर से बरसने लगता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सदा मधुर, प्रिय, यथार्थ एवं निर्दोष भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथम चूलिकायां चतुर्थ-भाषाजाताध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः //